संभोग से समाधि की और--ओशो (बाहरवां प्रवचन) युवा चित्त का जन्‍म—बाहरवां प्रवचन

युवा चित्त का जन्‍म—बाहरवां प्रवचन


      मेरे प्रिय आत्मन
      सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह—जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखायी पड़ता है। जगह—जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है :  ' 'प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड' ' — अध्यापकगण, आप बूढ़े हो गये हैं!
      सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जो लिखा है, वह मनुष्य की पूरी संस्कृति, पूरी सभ्यता की दीवालों पर लिखा जा सकता है। सब कुछ बूढ़ा हो गया है, अध्यापक ही नहीं। मनुष्य का मन भी बूढ़ा हो गया है।
      मैंने सुना है कि लाओत्से के संबंध में एक कहानी है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ है। यह कहानी कैसे सच होगी? कहना मुश्‍किल है। सुना नहीं कि कभी कोई आदमी बूढ़ा ही पैदा हुआ हो! शरीर से तो कभी नहीं सुना है कि कोई आदमी बूढ़ा पैदा हुआ हो! लेकिन ऐसा हो सकता है कि मन से आदमी पैदा होते ही बूढ़ा हो जाये।

      और लाओत्से भी अगर बूढ़ा पैदा हुआ होगा, तो इसी अर्थ में कि वह कभी बच्चा नहीं रहा होगा। कभी जवान नहीं हुआ होगा। चित्त के जो वार्धक्य के, ' ओल्डनेस' के जो लक्षण हैं, वे पहले दिन से ही उसमें प्रविष्ट हो गये होंगे। लेकिन लाओत्से बूढ़ा पैदा हुआ हो या न हुआ हो, आज जो मनुष्यता हमारे सामने है, वह बूढ़ी ही पैदा होती है। हमने बूढे होने के सूत्र पकड़ रखे हैं।
      और इसके पहले मैं कहूं कि युवा चित्त का जन्म कैसे हो, मैं इस भाषा में कहूंगा कि चित्त बूढ़ा कैसे हो जाता है; क्योंकि बहुत गहरे में चित्त का बूढ़ा होना, मनुष्य की चेष्टा से होता है।
      चित्त अपने आप में सदा जवान है। शरीर की तो मजबूरी है कि वह बूढा हो जाता है; लेकिन चेतना की कोई मजबूरी नहीं है कि वह बूढ़ी हो जाये। चेतना युवा ही है। 'माइंड' तो 'यंग' ही है। वह कभी का नहीं होता, लेकिन अगर हम व्यवस्था करें, तो उसे भी बूढ़ा बना सकते हैं।
      इसलिए जवान चित्त कैसे पैदा हो, 'यंग माइंड' कैसे पैदा हो, यह सवाल उतना महत्वपूर्ण नहीं है; जितना गहरे में सवाल यह है कि चित्त को बूढ़ा बनाने की तरकीबों से कैसे बचा जाये। अगर हम चित्त को बूढ़ा बनाने की तरकीबों से बच जाते हैं, तो जवान चित्त अपने—आप पैदा हो जाता है।
चित्त जवान है ही। चित्त कभी का होता ही नहीं। वह सदा ताजा है। चेतना सदा ताजी है। चेतना नयी है, रोज नयी है।
      लेकिन हमने जो व्यवस्था की है, वह उसे रोज बूढ़ा और पुराना करती चली जाती है। तो पहले मैं समझाना चाहूंगा कि चित्त के बूढ़ा होने के सूत्र क्या हैं :
      पहला सूत्र है फियर, भय। जिस चित्त में जितना ज्यादा भय प्रविष्ट हो जायेगा, वह उतना ही 'पैरालाइब्द' और 'क्रिपल्ड ' हो जायेगा। वह उतना ही बूढा हो जायेगा।
      और हमारी पूरी संस्कृति—आज तक के मनुष्य की पूरी संस्कृति, भय पर खड़ी हुई है।
      हमारा तथाकथित सारा धर्म भय पर खड़ा हुआ है। हमारे भगवान की मूर्तियां हमने भय के कारखाने में डाली हैं। वहीं वे निर्मित हुई है। हमारी प्रार्थनाएं हमारी पूजाएं— थोड़ा हम भीतर प्रवेश करें, तो भय की आधारशिलाओं पर खड़ी हुई मिल जायेंगी। हमारे संबंध, हमारा परिवार, हमारे राष्ट्र, बहुत गहरे में, भय पर खड़े ?? परिवार निर्मित हो गये हैं; लेकिन पति भयभीत है! पुरुष भयभीत है! सी भयभीत है! बच्चे भयभीत हैं! साथ खड़े हो जाने से भय थोड़ा कम मालूम होता है।
संप्रदाय, संगठन खड़े हो गये हैं भय के कारण! राष्ट्र, देश खड़े हैं भय के कारण!
      हमारी जो भी आज तक की व्यवस्था है, वह सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है। एक—दूसरे से हम भयभीत हैं। दूसरे से ही नहीं, हम अपने से भी भयभीत हैं।
      इस भय के कारण, चित्त का युवा होना कभी संभव नहीं है, क्योंकि चित्त तभी युवा होता है, जब अभय हो। खतरे और जोखिम उठाने में समर्थ हो। जो जितना ही भयभीत है, वह खतरे में उतना ही प्रवेश नहीं करता है। वह सुरक्षा का रास्ता लेता है, 'सिक्योरिटी' का रास्ता लेता है। जहां कोई खतरे न हों, वह रास्ता लेता है।
      और सिर्फ उन्हीं रास्तों पर खतरा नहीं मालूम होता है, जो हमारे परिचित हैं। जिन पर हम बहुत बार गुजरकर गये हैं। तो बूढ़ा मनुष्य, कोल्हू के बैल की तरह एक ही रास्ते पर घूमता रहता है। रोज सुबह वहीं उठता है, जहां कल सांझ सोया था! रोज वही करता है, जो कल किया था! रोज वही—जो कल था, उसी में जीने की कोशिश करता है! नये से डरता है। नये में खतरा भी हो सकता है। भयभीत चित्त बूढ़ा होता है। और भय हमारे पूरे प्राणों को किस बुरी तरह मार डालता है, यह हमें पता नहीं है।
      मैंने सुना है, एक गांव के बाहर एक फकीर का झोपड़ा था। एक सांझ अंधेरा उतरता था। फकीर झोपड़े के बाहर बैठा है। एक काली छाया उसे गांव की तरफ भागती जाती मालूम पड़ी। रोका उसने उस छाया को! पूछा, तुम कौन हो? और कहां जाती हो? उस छाया ने कहा, मुझे पहचाना नहीं, मैं मौत हूं और गांव में जा रही हूं। प्लेग आने वाला है। गांव में मेरी जरूरत पड गयी है।
      उस फकीर ने पूछा, कितने लोग मर गये हैं? कितने लोगों के मरने का इंतजाम है, कितने की योजना है? उस मौत की काली छाया ने कहा, बस! हजार लोग ले जाने हैं।
      मौत चली गयी। महीना भर बीत गया। गांव में प्लेग फैल गया। कोई पचास हजार आदमी मरे। दस लाख की नगरी थी। कुल पचास हजार आदमी मर गए।
      फकीर बहुत हैरान हुआ कि आदमी धोखा देता था। यह मौत भी धोखा देने लगी, मौत भी झूठ बोलने लगा! और मौत क्यों झूठ बोले? क्योंकि आदमी झूठ बोलता है डर के कारण! मौत किससे डरती होगी, कि झूठ बोले। मौत को तो डरने का कोई कारण नहीं, क्योंकि मौत ही डरने का कारण है, तो मौत को क्या डर हो सकता है? फकीर बैठा रहा कि मौत वापस लौटे, तो पूछ लूं। महीने भर के बाद मौत वापस लौटी। फिर रोका और कहा कि बड़ा धोखा दिया। कहा था, हजार लोग मरेंगे, पचास हजार लोग मर चुके हैं।
      मौत ने कहा, मैंने हजार ही मारे हैं, बाकी भय से मर गये हैं। उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है। वे अपने—आप मर गये हैं।
      और भय से कोई आदमी बिलकुल मर जाये, बड़ा खतरा नहीं है, लेकिन भय से हम भीतर मर जाते हैं, और बाहर जीते चले जाते हैं। भीतर लाश हो जाती है, बाहर जिंदा रह जाते हैं। भीतर सब 'डेड—वेट' हो जाता है—मुर्दा, मरा हुआ। और बाहर हमारी आंखें ,हाथ—पैर चलते हुए मालूम पड़ते हैं।
      बूढ़े होने का मतलब यह है कि जो आदमी भीतर से मर गया है, सिर्फ बाहर से जी रहा है। जिसका जिंदगी सिर्फ बाहर है। भीतर जो मर चुका है, वह आदमी बूढ़ा है।
      यह हो सकता है, कि एक आदमी बाहर से बूढ़ा हो जाये। शरीर पर झुर्रईयां पड़ गयी हैं, और मृत्यु के चरण—चिह्न दिखायी पड़ने लगे हैं। मृत्यु की पग— ध्वनियां सुनायी पड़ने लग गयी हैं। और भीतर से जिंदा हो, जवान हो, उस आदमी को बूढ़ा कहना गलत है। बूढ़ा, शारीरिक मापदण्‍ड से नहीं तौला जा सकता है। बुढ़ापा तौला जाता है, भीतर कितना मृत हो गया है, उससे। कुछ लोग बूढ़े ही जीते हैं; जन्मते हैं, और मरते हैं!
      कुछ थोड़े—से सौभाग्यशाली लोग युवा जीते हैं। और जो युवा होकर जी लेता है, वह युवा ही मरता है। वह मौत के आखिरी क्षण में भी युवा होता है। मृत्यु उसे छीन नहीं पाती। क्योंकि जिसे बुढ़ापा ही नहीं छू पाता है, उसे मृत्यु कैसे छू पायेगी। लेकिन संस्कृाति हमारी, भय को ही प्रचारित करती है। हजार तरह के भय खड़े करती है।
      सारे पुराने धर्मों ने ईश्वर का भय सिखाया है। और जिसने भी ईश्वर का भय सिखाया है, उसने पृथ्वी पर अधर्म के बीज बोये हैं। क्योंकि भयभीत आदमी धार्मिक हो ही नहीं सकता। भयभीत आदमी धार्मिक दिखायी पड़ सकता है।
      भय से कभी किसी व्यक्ति के जीवन में क्रांति हुई है? रूपांतरण हुआ है? पुलिस वाला चौरास्ते पर खड़ा है, इसलिए मैं चोरी न करूं, तो मैं अच्छा आदमी हूं! पुलिस वाला हट जाये, तो मेरी चोरी अभी शुरू हो जाये।
      अगर पका पता चूल जाये कि ईश्वर मर गया है—उसकी खबरें तो बहुत आती हैं; लेकिन पका नहीं हो पाता कि ईश्वर मर गया है। तो जिसको हम धार्मिक आदमी कहते हैं, वह एक क्षण में अधार्मिक हो जाये। अगर इसकी गारंटी हो जाये कि ईश्वर मर गया है, तो जिसको हम धार्मिक आदमी कहते हैं, मंदिर कभी न जाये। फिर सचाई, सत्य और गीता और कुरान और बाइबिल की बातें वह भूलकर भी न करें। वह फिर टूट पड़े जीवन पर, पागल की तरह! उसने भगवान को एक बहुत बड़ा सुप्रीम कांस्टेबल की तरह समझा हुआ है। हैड कांस्टेबल, सबके ऊपर बैठा हुआ पुलिसवाला, वह उसको डराये हुए है।
      पुराना शब्द है 'गॉड—फियरिग', ईश्वर— भीरू! धार्मिक आदमी को हम कहते हैं—ईश्वर भीरू!
      परसों मैं एक मित्र के घर था बड़ौदा में, उन्होंने कहा, मेरे पिता बहुत 'गॉड फीयरिग' हैं, बड़े धार्मिक आदमी हैं। सुन लिया मैंने! लेकिन 'गॉड—फियरिग' धार्मिक कैसे हो सकता है? 'गॉड—लविंग', ईश्वर को प्रेम करने वाला धार्मिक हो सकता है। ईश्वर से डरने वाला कैसे धार्मिक हो सकता है?
और ध्यान रहे, जो डरता है, वह प्रेम कभी नहीं कर सकता है। जिससे हम डरते हैं, उसको हम प्रेम कर सकते हैं? उसको हम घृणा कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते! हां, प्रेम दिखा सकते हैं। भीतर होगी घृणा, बाहर दिखायेंगे प्रेम! प्रेम एक्टिंग होगा, अभिनय होगा!
      जो भगवान से डरा हुआ है, उसकी प्रार्थना झूठी है। उसके प्रेम की सब बातें झूठी हैं। क्योंकि जिससे हम डरे हैं, उससे प्रेम असंभव है। उससे प्रेम का संबंध पैदा ही नहीं होता है।
      कभी आपको खयाल है, जिससे आप डरे हैं, उसे आपने प्रेम किया है? लेकिन यह भ्रांति गहरी है। वह ऊपर बैठा हुआ पिता भी इस तरह पेश किया गया है कि उससे हम डरे हैं। नीचे भी जिसको हम पिता कहते हैं, मां कहते हैं, गुरु कहते हैं, वे सब डरा रहे हैं। और सब सोचते हैं कि डर से प्रेम पैदा हो जाये।
      बाप, बेटे को डरा रहा है। डराकर सोच रहा है कि प्रेम पैदा होता है। नहीं! दुश्मनी पैदा हो रही है। हर बेटा, बाप का दुश्मन हो जायेगा। जो बाप भी बेटे को डरायेगा, दुश्मनी पैदा हो जाना निश्‍चित है। और बेटा आज नहीं कल, बदले में बाप को डरायेगा। थोड़ा वक्त लगेगा, थोड़ा समय लगेगा। बाप जब बूढ़ा हो जायेगा, बेटा जब जवान होगा, तो बाप ने जब जवान था और बेटा जब बच्चा था, जिस भांति डराया था, पहलू बदल जायेगा, अब बेटा बाप को डरायेगा! और बाप चिल्लायेगा बेटे बिलकुल बिगड़ गये हैं!
      बेटे कभी नहीं बिगड़ते। पहले बाप को बिगड़ना पडता है। तब बेटे बिगड़ते हैं।
      बाप पहले बिगड़ गया। उसने बचपन में बेटे के साथ वह सब कर लिया है, जो बेटे को बुढ़ापे में उसके साथ करना पड़ेगा। सब चक्के घूमकर अपनी जगह आ जाते हैं।
      अगर भय हमने पैदा किया है तो परिणाम में भय लौटेगा, घृणा लौटेगी, दुश्मनी लौटेगी। प्रेम नहीं लौटता।
      और हमने जो ईश्वर बनाया था, वह भय का साकार रूप था। भय ही भगवान था। स्वाभाविक रूप से आदमी उससे डरा। डरकर धार्मिक बना तो धार्मिकता झूठी ही थोपी! एकदम ऊपरी। भीतर भय था। भीतर डर था। आज एक युवती ने मुझे आकर कहा कि बचपन से मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर मुझे मिल जाये तो उसे मार डालूं। मैंने कहा, यह सब खयाल है तेरे मन में? लेकिन जो भी डराने वाला है, उसको मारने का खयाल हमारे मन में पैदा होगा ही। उस युवती को ठीक ही खयाल पैदा हुआ है। हिम्मत है, उसने कह दिया है। हममें हिम्मत नहीं है, हम नहीं कहते। वैसे हर आदमी इस खोज में है कि ईश्वर को कैसे खत्म कर दें, कैसे मार डालें।
      दोस्तोवस्की ने अपने उपन्यास में कहा है कि अगर ईश्वर न हो, 'देन एवरी थिंग इज कमिटेड'। एक बार पका हो जाये, ईश्वर नहीं है तो हर चीज की आज्ञा मिल जाये। फिर हमें जो करना है, हम कर सकते हैं। फिर कोई डर न रह जाय। वही तो निश्‍चित है। बाद में उसने कहा कि तुम छोड़ दो भय। खबर नहीं मिली तुम्हें—गॉड इज नाउ डैड, मैन इज फ्री, ईश्वर मर चुका है और आदमी मुक्त है!
      ईश्वर बंधन था कि उसके मरने से आदमी मुक्त होगा? इसमें ईश्वर का कसूर नहीं है। इसमें धर्म के नाम पर जो परंपराएं बनीं, उन्होंने भय का बंधन बना दिया था। जरूरी हो गया था कि ईश्वर के बेटे किसी दिन उसे कत्ल कर दें।
      आज दूनिया भर के बेटे ईश्वर का कत्‍ल कर दे रहे हैं। रूस ने कत्ल किया है, चीन ने कत्ल किया है; हिन्दुस्तान में भी कत्ल करेंगे। बचाना बहुत मुश्किल है। नक्सलवादी ने शुरू किया है, बंगाल में शुरू किया है। गुजरात थोड़ा पीछे जायेगा। थोड़ा गणित बुद्धि का है, थोड़ी देर में; लेकिन आयेगा, बच नहीं सकता।
      ईश्वर पृथ्वी के कोने—कोने में कत्‍ल किया जायेगा। उसका जिम्मा नास्तिकों का नहीं होगा, गौर रखना। उसका जिम्मा उनका होगा, जिन्होंने ईश्वर के साथ भय को जोड़ा है, प्रेम को नहीं। इसके लिए जिम्मेदार तथाकथित धार्मिक लोग होंगे—वे चाहे हिंदु हों, चाहे मुसलमान हों, चाहे ईसाई हों; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जिन्होंने भी, मनुष्य—जाति के मन में ईश्वर और भय का एसोसिएशन करवा दिया है, दोनों को जुड़वा दिया है, उन्होंने इतनी खतरनाक बात पैदा की है कि आदमी के धार्मिक होने में सबसे बडी बाधा बन गयी है। या तो ईश्वर को भय से मुक्त करो—या ईश्वर आदमी को बूढ़ा करने और मारने का कारण हो गया है—क्योंकि भय बूढ़ा करता है और मारता है।
      और ध्यान रहे, चीजें संयुक्त हो जाती हैं। विपरीत चीजें भी संयुक्त हो सकती हैं। मन के नियम हैं। अब भय से भगवान का कोई संबंध नहीं है। अगर इस पृथ्वी पर, इस जगत में, इस जीवन में कोई एक चीज है, जिससे निर्भय हुआ जा सकता है तो वह भगवान है। कोई एक तत्व है, जिससे निर्भय हुआ जा सकता है पूरा, तो वह परमात्मा है; क्योंकि बहुत गहरे में हम उसकी ही किरणें हैं, उसके ही हिस्से हैं। उसके ही भाग हैं, उससे ही लगे हैं। उससे भय का सवाल क्या है? उससे भयभीत होना अपने से भयभीत होने का मतलब रखेगा। लेकिन हम जोड़ सकते हैं चीजों को।
      पावलव ने रूस में बहुत प्रयोग किये हैं एसोसिएशन पर, संयोग पर। एक कुत्ते को पावलव रोज रोटी खिलाता है। रोटी सामने रखता है, कुत्ते की लार टपकने लगती है। फिर रोटी के साथ वह घंटी बजाता है। रोज रोटी देता है, घंटी बजाता है। रोटी देता है, घंटी बजाता है। पन्द्रह दिन बाद रोटी नहीं देता है, सिर्फ घंटी बजाता है। और कुत्ते की लार टपकनी शुरू हो जाती है! अब घंटी से लार टपकने का कोई भी संबंध कभी सुना है? घंटी बजने से कुत्ते की लार टपकने का क्या संबंध है?
      कोई भी संबंध नहीं है। तीन काल में कोई संबंध नहीं है। लेकिन एसोसिएशन हो जाता है। रोटी के साथ घंटी जुड़ गयी। जब रोटी मिली तब घंटी बजी, जब घंटी बजी तब रोटी मिली। रोटी और घंटी मन में कहीं एक साथ हो गयीं। अब सिर्फ घंटी बज रही है, लेकिन रोटी का खयाल साथ में आ रहा है और तकलीफ शुरू हो गयी है।
      मनुष्य कुछ खतरनाक संयोग भी बना सकता है। भगवान और भय का संयोग ऐसा ही खतरनाक है। पावलव का प्रयोग बहुत खतरनाक नहीं है। घंटी और रोटी में संबंध हो जाये, हर्ज क्या है? लेकिन भगवान और भय में संबंध हो जाये तो मनुष्यता बूढ़ी हो जायेगी।
      अतीत का मनुष्य बूढ़ा मनुष्य था। अतीत का इतिहास वृद्ध मनुष्यता का इतिहास है, ' ओल्ड माइंड का'। बूढ़े मन का इतिहास है, क्योंकि वह भय पर खड़ा हुआ है।
      धर्म... भय पर खड़े हुए मंदिर हैं, हाथ जोड़े हुए भयभीत लोग! यह फासला, भय, डर, कि भगवान मिटा देगा! वह तो तैयार बैठा हुआ है। भगवान तैयार बैठा हुआ है आदमियों को सताने को, डराने को। आदमी जरा ही इंकार करेगा और भगवान बर्बाद कर देगा, और नरकों में सड़ा देगा।
      नरक के कैसे—कैसे भय पैदा हमने किये हैं भगवान के साथ? कैसे अदभुत भय पैदा किये हैं? क्रिमिनल माइंड भी, अपराधी से अपराधी आदमी भी ऐसी योजना नहीं बना सकता है जैसी, जिन्हें हम ऋषि—मुनि कहते हैं, उन्होंने नरक की योजना बनायी है! नरक की योजना देखने लायक है। और ध्यान रहे, नरक की योजना कोई बहुत सौंदर्य को, सत्य को, प्रेम को, परमात्मा को खयाल में रखने वाला बना नहीं सकता है। यह असंभव है कि अगर वास्तव में परमात्मा हो तो नरक भी हो सके। ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं। या तो परमात्मा नहीं होगा, तो नरक हो सकता है। और अगर नरक है, तो फिर परमात्मा को विदा करो। वह नहीं हो सकता है। ये दोनों चीजें एक साथ संभव नहीं हैं। उनका को—इग्जिसूटेंस नहीं हो सकता है। उनका सह—अस्तित्व संभव नहीं है।
      नरक की क्या—क्या योजना है, सोचा है आपने कभी? कितना डराया होगा आदमी को? और आदमी इतना कम जानता था कि डराया जा सकता है। इतना कम जानता था कि घबड़ाया जा सकता है। आदमी एक अर्थ में अबोध था। वह बहुत भयभीत किया जा सकता था।
      हर मुल्क को नरक की अलग—अलग कल्पना करनी पड़ी। क्यों? क्योंकि हर मुल्क में भय का अलग—अलग उपाय खोजा गया है। स्वाभाविक था। कुछ चीजें, जिनसे हम भयभीत हैं, दूसरे लोग भयभीत नहीं हैं। जैसे तिब्बत में ठंड भय पैदा करती है, हिन्दुस्तान में पैदा नहीं करती। ठंड अच्छी लगती है। तो हमारे नरक में ठंड का बिलकुल इन्तजाम नहीं है। हमारे नरक में आग जल रही है और धूप और गर्मी हमें परेशान करती है, भयभीत करती है। और हमने नरक में आग के अखंड क्यूं जला रखे हैं! यज्ञ ही यज्ञ हो रहे है नरक में! आग ही आग जल रही है और अनंत काल से उसमें घी डाला जा रहा होगा! भड़कती ही चली जा रही है। और उस आग का कभी बुझना नहीं होगा। वह इटर्नल फायर है, और वह कभी बुझती नहीं है, अनंत आग है। और उसमें पापियों को डाला जा रहा है, सड़ाया जा रहा है। मजा एक है कि कोई मरेगा नहीं उस आग में डालने से, क्योंकि मर गये तो दुख खल हो जायेगा। इंतजाम यह है, आग में डाले जायेंगे। जलेंगे सडेंगे, गलेंगे, मरेंगे भर नहीं। जिंदा तो रहना ही पड़ेगा।
      नरक में कोई मरता नहीं है, खयाल रखना!
      क्योंकि मरना भी एक राहत हो सकती है, किसी स्थिति में। मरना भी कंफर्टेबल हो सकता है किसी हालात में। किसी क्षण में आदमी चाह सकता है, मर जाऊं!
      वहां कोई आत्महत्या नहीं कर सकता है। पहाड़ से गिरो, गर्दन टूट जायेगी, आप बच जाओगे। फांसी लगाओ, गला कट जायेगा, आप बच जाओगे। छुरा मारो, छुरा घुप जायेगा, आप बच जाओगे। जहर पियो, फोड़े—फुंसिया पैदा हो जायेंगी, जहर उगाने लगेगा शरीर, लेकिन आप नहीं मरोगे। नरक में आत्महत्या का उपाय नहीं है! आग जल रही है, जिसे हम जला रहे हैं।
      तिब्बत में... और तिब्बत के नरक में आग नहीं जलती, क्योंकि तिब्बत में अण बड़ी सुखद है। तो तिब्बत में आग की जगह शाश्वत बर्फ जमा हुआ है, जो कभी नहीं पिघलता है! वह बर्फ में दबाये जायेंगे, तिब्बत के पापी। वह बर्फ में दबाया जायेगा। तिब्बत के स्वर्ग में आग है। सूरज चमकता है तेज धूप है, बर्फ बिलकुल नहीं जमती। हिन्दुस्तान के स्वर्ग बिलकुल एयरक्कीशंड है, वातानुकूलित है। शीतल मंद पवन हमेशा बहती रहती है। कभी ऐसा नहीं होता कि ठंडक में कमी आती है। ठंडक ही बनी रहती है। सूरज भी निकलता है तो किरणें तपाने वाली नहीं है, बड़ी शीतल हैं।
      दुख, भय, आदमी को नरक का, पापों का, पापों के कर्मों का.. लंबे—लंबे भय, हमने मनुष्य के मानस में निर्धारित किये हैं! और किसलिए? यह आदमी धार्मिक है? यह आदमी धार्मिक नहीं हुआ, सिर्फ बूढ़ा हो गया है। सिर्फ वृद्ध हो गया है। इतना भयभीत हो गया है कि वृद्ध हो गया है। भय बड़ी तेजी से वार्धक्य लाता है।
      यहां तक घटनाएं संग्रहीत की गयी हैं कि एक आदमी को कोई तीन सौ वर्ष पहले हालैंड में फांसी की सजा दी गयी। वह आदमी जवान था। जिस दिन उसे फांसी की सजा सुनायी गयी, सांझ वह जाकर अपनी कोठरी में सोया। सुबह उठकर पहरेदार उसे पहचान न सके कि यह आदमी वही है। उसके सारे बाल सफेद हो गये हैं! उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं, वह आदमी बूढ़ा हो गया है!
      ऐसी कुछ घटनाएं इतिहास में संग्रहीत हैं, जब आदमी क्षण भर में बूढ़ा हो गया हो। इतनी तेजी से! भयभीत अगर हो गया होगा, तो हो सकता है। जो रस स्रोत तीस वर्ष में सूखते, वह भय के क्षण में, एक ही क्षण में सूख गये हों। कठिनाई क्या है? निश्‍चित, बाल सफेद होंगे ही। तीस—चालीस वर्ष, पचास वर्ष समय लगता है उनके बाल सफेद होने में। यह हो सकता है कि इतनी तीव्रता से भय ने पकड़ा हो कि भीतर के जिन रस स्रोतों से बालों में कालिख आती हो, वे एक ही भय के धक्के में सूख गये हों। बाल सफेद हो गये हों।
      आदमी एक क्षण में बूढ़ा हो सकता है, भय से।
      और अगर दस हजार साल की पूरी संस्कृति भय पर ही खड़ी है। सिवाय भय के कोई आधार ही न हो, तो अगर आदमी का मन बूढ़ा हो जाये, तो आश्चर्य  नहीं है।
      जिसे बूढ़ा होना हो, उसे भय में दीक्षा लेनी चाहिए। उसे भय सीखना चाहिए, उसे भयभीत होना चाहिए।
      यूरोप में ईसाइयों के दो संप्रदाय थे—एक तो अब भी जिन्दा है, क्वेकर। क्वेकर का मतलब होता है, कैप जाना। जमीन कंप जाती है। क्वेकर का मतलब होता है, कंप जाना।
      क्वेकर संप्रदाय का जन्म ऐसे लोगों से हुआ है, जिन्होंने लोगों को इतना भयभीत कर दिया—कि उनकी सभा में लोग कंपने लगते हैं, गिर जाते हैं और बेहोश हो जाते हैं। इसलिए इस संप्रदाय का नाम क्वेकर हो गया। एक और संप्रदाय था, जिसका नाम था शेकर। वह भी कंपा देता था। जान बकेले जब बोलता था तो स्त्रियां बेहोश हो जाती थीं, आदमी गिर पड़ते थे, लोग कांपने लगते थे, लोगों के नथुने फूल जाते थे। क्या बोलता था? नरक के चित्र खींचता था। साफ चित्र। और लोगों के मन में चित्र बिठा देता था। और डर बिठा देता था। वे सारे लोग हाथ जोड़कर कहते थे कि हमें प्रभु ईसा के धर्म में दीक्षित कर दो। डर गये।
      इसलिए जितने दुनिया में धर्म नये पैदा होते हैं, वे घबराते हैं कि दुनिया का अंत जल्दी हौने वाला है। बहुत शीघ्र दुनिया का अंत आने वाला है। सब नष्ट हो जायेगा। जो हमें मान लेंगे, वही बच जायेंगे। घबड़ाहट में लोग उन्हें मानने लगते है।
      अभी भी इस मुल्क में कुछ संप्रदाय चलते हैं, जो लोगों को घबराते है कि जल्दी सब अंत होने वाला है। सब खतम हो जायेगा। और जो हमारे साथ होंगे, वे बच जायेंगे, शेष सब नरक में पड़ जायेंगे।
      सब धर्म यही कहते हैं कि जो हमारे साथ होंगे, वे बच जायेंगे, बाकी सब नरक में पड़ जायेंगे। अगर उन सब की बातें सही हैं तो एक भी आदमी के बचने का उपाय नहीं दिखता है। जीसस को नरक में जाना पड़ेगा, क्योंकि जीसस हिन्दू नहीं हैं, जैन नहीं हैं, बौद्ध नहीं हैं। महावीर को भी नरक में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि महावीर ईसाई नहीं हैं, बौद्ध नहीं हैं, हिन्दू नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं। बुद्ध को भी नरक में पडना पड़ेगा, क्योंकि वह हिन्दू नहीं हैं, ईसाई नहीं हैं, जैन नहीं हैं। दूनिया के सब धर्म कहते हैं कि हम सिर्फ बचा लेंगे, बाकी सब डुबा देंगे। उस घबराहट में ठीक से— भय शोषण का उपाय बन गया है।
      भयभीत करो, आदमी शोषित हो जाता है।
      भयभीत कर दो आदमी को, फिर वह होश में नहीं रह जाता है। फिर वह कुछ भी स्वीकार कर लेता है। डर में वह इनकार नहीं करता। भयभीत आदमी कभी संदेह नहीं करता और जो संदेह नहीं करता है, वह का हो जाता है।
      जो आदमी संदेह कर सकता है, वह सदा जवान है।
      जो आदमी भयभीत होता है, वह विश्वास कर लेता है, 'बिलीव' कर लेता है, मान लेता है कि जो है, वह ठीक है। क्योंकि इतनी हिम्मत जुटानी कठिन है कि गलत है। बूढ़ा आदमी विश्वासी होता है। युवा सिर्फ निरंतर संदेह करता है—खोजता है, पूछता है, प्रश्र करता है।
      यह ध्यान रहे, युवा चित्त से विज्ञान का जन्म होता है और बूढ़े चित्त से विज्ञान का जन्म नहीं होता है।
      जिन देशों में जितना भय और जितना वार्धक्य लादा गया है, उन देशों में वितान का जन्म नहीं हो सका, क्योंकि विचार नहीं, सन्देह नहीं, प्रश्न नहीं, जिज्ञासा नहीं!
      क्या हम सब भयभीत नहीं हैं? क्या हम सब भयभीत होने के कारण सारी व्यवस्था को बांधे हुए, 'पकड़े हुए नहीं खड़े हैं? क्या हम सब डरे हुए नहीं हैं?
      अगर हम डरे हुए हैं तो यह संस्कृति और यह समाज सुंदर नहीं है, जिसने हमें डरा दिया है। संस्कृति और समाज तो तब सुंदर और स्वस्थ होगा, जब हमें भय से मुक्त करे, हमें अभय बनाये। अभय, 'फियरलेसनेस', निर्भय नहीं। निर्भय और अभय में बडा फर्क है। फर्क है, यह समझ लेना जरूरी है।
      भयभीत आदमी, भीतर भयभीत है और बाहर से अकड़कर डर इनकार करने लगे, तो वह निर्भय होता है। भय शांत नहीं होता है उसके भीतर। वह बहादुरी दिखायेगा बाहर से, भीतर भय होगा। जिनके हाथ में भी तलवार है, वे कितने भी बहादुर हों, वे भयभीत जरूर रहे होंगे, क्योंकि बिना भय के हाथ में तलवार का कोई भी अर्थ नहीं है। जिनके भी हाथ में तलवार है, चाहे उनकी मूर्तियां चौरस्ते पर खड़ी कर दी गयी हों, और चाहे घरों में चित्र लगाये गये हों, वे घोड़े पर बैठे हुए—तलवारें हाथ में लिए हुए लोग, भयभीत लोग हैं। भीतर भय है। तलवार उनकी सुरक्षा है— भय की।
      और ध्यान रहे, जो आदमी निर्भय हो जायेगा, वह दूसरे को भयभीत करने के उपाय शुरू कर देगा। क्योंकि भीतर उसके भय है, वह डरा हुआ है। मैक्यावेलि ने कहा है, डिफेंस का, सुरक्षा का एक सबसे अच्छा उपाय आक्रमण है, 'अटैक' है। प्रतीक्षा मत करो कि दूसरा आक्रमण करेगा, तब हम उत्तर देंगे। आक्रमण कर दो, ताकि, दूसरे को आक्रमण का मौका न रहे।
      जितने लोग आक्रामक हैं, एग्रेसिव हैं, सब भीतर से भय से भरे हुए हैं। भयभीत आदमी हमेशा आक्रामण होगा, क्योंकि वह डरता है। इसके पहले कि कोई मुझ पर हमला करे, मैं हमला कर दूं। पहला मौका मुझे मिल जाये। हमला हो जाने के बाद, कहा नहीं जा सकता है, क्या हो? इसलिए भयभीत आदमी हमेशा तलवार लिए हुए है। वह कवच बांधे हुए मिलेगा। कवच बहुत तरह के हो सकते हैं। एक आदमी कह सकता है कि मैं तो भगवान में विश्वास करता हूं। मुझे कोई डर नहीं है। मैं तो भगवान का सहारा मांगता हूं। यह भी कवच बनाया है भगवान का, तलवार बना रहा है भगवान को। भगवान की तलवारें मत डालो। भगवान कोई लोहा नहीं है कि तलवारें ढाली जा सकें और कवच बनाया जा सके।
      वह आदमी कहता है, मुझे कोई डर नहीं है। रोज मैं हनुमान चालीसा पढ़ता हूं। वह हनुमान चालीसा को ढाल बना रहा है। और भीतर भयभीत है। और भयभीत आदमी कितना ही हनुमान चालीसा पढ़े.. तो हनुमान फिर पूछते होंगे कि कई दिनों से यह पागल क्या कर रहा है? भयभीत आदमी कितनी ही कवच उपलब्ध कर लें, मृत नहीं मिटता है। निर्भय भी भय करने लगेगा और दिखाने की कोशिश करेगा कि मैं किसी से भयभीत नहीं हूं। जो भी आदमी दिखाने की कोशिश करे कि मैं किसी से भयभीत नहीं हूं जान लेना कि दिखाने की कोशिश में भीतर भय उपस्थित है। अभय बिलकुल और बात है।
      अभय का मतलब है, भय का विसर्जित हो जाना।
      अभय का मतलब, भय का विसर्जन। निर्भय नहीं हो जाना है। अभय का मतलब है, भय का विसर्जित हो जाना। सिर्फ अभय को जो उपलब्ध हुआ हो, वही व्यक्ति अहिंसक हो सकता है। निर्भय व्यक्ति, अहिंसक नहीं हो सकता। भीतर भय काम करता ही रहेगा। और भय सदा हिंसा की मांग करता रहेगा। भय सदा सुरक्षा चाहेगा। सुरक्षा के लिए हिंसा का आयोजन करना पड़ेगा।
आज तक का पूरा समाज हमारा हिंसक समाज रहा है।
      अच्छे लोग भी हिंसक रहे हैं, बुरे लोग भी हिंसक रहे हैं।
      इस धर्म के मानने वाले भी हिंसक हैं, उस धर्म के मानने वाले भी हिंसक हैं। इस देश के, उस देश के; सारी पृथ्वी हिंसक रही है।
      सारी पृथ्वी का पूरा इतिहास हिंसा और युद्धों का इतिहास है।
      नाम हम कुछ भी देते हों, नाम गौण है। जैसे कोई आदमी अपने कोट को खूंटी पर टांग दे। खूंटी गौण है, असली सवाल कोट है। यह खूंटी न मिलेगी, दूसरी खूंटी पर टागेगा। दूसरी न मिलेगी, तीसरी खूंटी पर टांगेगा। खूंटी से कोई मतलब नहीं है।
      हजार खूंटियों पर आदमी अपनी हिंसा टांगता रहा है। धर्म की खूंटी पर भी हिंसा टांग देता है, आश्रर्य की बात है। हिन्दू—मुसलमान लड़ पड़ते हैं, हिंसा हो जाती है। धर्म की खूंटी पर युद्ध टांगता है। धर्म की खूंटी पर युद्ध टैग सकता है। भाषा की खूंटी पर युद्ध याता रहता है। राष्ट्रों के चुनाव पर युद्ध टैग जायेगा।
      कोई भी बहाना चाहिए आदमी को लड़ने का।
      आदमी को लड़ने का बहाना चाहिए, क्योंकि आदमी भय से भरा है।
      और जब तक आदमी भय से भरा है, तब तक वह लड़ने से मुक्त नहीं हो सकता। लड़ना ही पड़ेगा। लड़ने से वह अपनी हिम्मत बढ़ाता है।
      कभी देखा है, अंधेरी गली में कोई जाता हो तो जोर से गीत गाने लगता है! समझ मत रखना कि कोई गीत गा रहा है अन्दर। सिर्फ गीत गाकर भुला रहा है अपने भय को। सीटी बजाने लगाता है आदमी अंधेरे में! ऐसा लगता है कि सीटी से बहुत प्रेम है। सीटी बजाकर भुला रहा है, भीतर के भय को। हजार उपाय हम उपयोग करते हैं भीतर के भय को भुलाने के, लेकिन भीतर का भय मिटता नहीं।
      मैंने सुना है, चीन में एक बहुत बड़ा फकीर था। उसकी बड़ी ख्याति थी। दूर—दूर तक ख्याति थी कि वह अभय को उपलब्ध हो गया है। 'फियरलेसनेस' को उपलब्ध हो गया है। वह भयभीत नहीं रहा है। यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि जो आदमी अभय को उपलब्ध हो जायेगा वह ताजा, जवान चित्त पा लेता है। और ताजा, जवान चित्त फौरन परमात्मा को जान लेता है, सत्य को जान लेता है।
      सत्य को जानने के लिए चाहिए ताजगी, 'फ्रेशनेस', जैसे सुबह के फूल में होती है, जैसे सुबह की पहली किरण में होती है।
      और बूढ़े चित्त में—सिर्फ सड़ गये, गिर गये फूलों की दुर्गंध होती है और विदा हो गयी किरणों के पीछे का अंधेरा होता है। ताजा चित्त चाहिए।
      तो खबर मिली, दूर—दूर तक खबर फैल गयी कि फकीर अभय को उपलब्ध हो गया है। एक युवक संन्यासी उस फकीर की खोज में गया जंगल में—घने जंगल में, जहां बहुत भय था, वह फकीर वहां रहता था। जहां शेर दहाड़ करते थे, जहां पागल हाथी वृक्षों को उखाड़ देते थे, उनके ही बीच, चट्टानों पर ही, वह फकीर पड़ा रहता था। और रात जहां अजगर रेंगते थे, वहां वह सोया रहता था निश्‍चित। युवक संन्यासी उसके पास गया। उसी चट्टान के पास बैठ गया। उससे बात करने लगा, तभी एक पागल हाथी दौड़ता हुआ निकला पास से। उसकी चोटों से पत्थर हिल गये। वृक्ष नीचे गिर गये। वह युवक कंपने लगा खड़े होकर। उस बूढ़े संन्यासी के पीछे छिप गया, उसके हाथ—पैर कंप रहे हैं।
      वह बूढ़ा संन्यासी खूब हंसने लगा और उसने कहा, तुम अभी डरते हो? तो संन्यासी कैसे हुए? क्योंकि जो डरता है, उसका संन्यास से क्या संबंध? हालांकि अधिक संन्यासी डरकर ही संन्यासी हो जाते हैं। पत्नी तक से डरकर आदमी संन्यासी हो जाते हैं। और डर की बात दूर है—बड़े डर तो दूर है, बड़े—छोटे डरो से डरकर संन्यासी हो जाता है।
      उस बूढ़े संन्यासी ने कहा, तुम डरते हो? संन्यासी हो तुम? कैसे संन्यासी हो? वह युवक कैप रहा है। उसने कहा, मुझे बहुत डर लग गया। सच में, बहुत डर लग गया। अभी संन्यास वगैरह का कुछ खयाल नहीं आता। थोड़ा पानी मिल सकेगा, मेरे तो ओंठ सूख गये,बोलना मुश्‍किल है।
      बूढ़ा उठा, वृक्ष के नीचे, जहां उसका पानी रखा था, पानी लेकर गया। जब तक बूढ़ा लौटा, उस युवक संन्‍यासी ने एक पत्थर उठाकर उस चट्टान पर जिस पर बूढ़ा बैठा था, लेटता था, बुद्ध का नाम लिख दिया—नमो बुद्धा:। बूढा लौटा, चट्टान पर पैर रखने को था, नीचे दिखायी पड़ा नमो बुद्धा:। पैर कंप गया, चट्टान से नीचे उतर गया!
      वह युवक खूब हंसने लगा। उसने कहा, डरते आप भी हैं। डर में कोई फर्क नहीं है। और मैं तो एक हा से डरा, जो बहुत वास्तविक था। और एक लकीर से मैंने लिख दिया, नमो बुद्धा:, तो पैर रखने में डर लगता कि भगवान के नाम पर पैर न पड़ जाये!
      किसका डर ज्यादा है? वह युवा पूछने लगा। क्योंकि मैं खोजने आया था अभय। मैं पाता हूं आप '' निर्भय हैं, अभय नहीं। निर्भय हैं सिर्फ। भय को मजबूत कर लिया है भीतर। चारों तरफ घेरा बना लिया है अभय का। सिंह नहीं डराता, पागल हाथी नहीं डराता, अजगर निकल जाते हैं; सख्त हैं बहुत आप। लेकिन जिसके आधार पर सख्ती होगी, वह आपका भय बना हुआ है। भगवान के आधार पर सख्त हो गये है। भगवान? सुरक्षा बना लिया है। तो भगवान के खड़िया से लिखे नाम पर पैर रखने में डर लगता है!
      उस युवक ने कहा, डरते आप भी हैं। डर में कोई फर्क नहीं पड़ा। और ध्यान रहे, हाथी से डर जाना, पा से—बुद्धिमत्ता भी हो सकती है। जरूरी नहीं कि डर हो। बुद्धिमानी ही हो सकती है। लेकिन भगवान के नाम पर पैर रखने से डर जाना तो बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती है। पहला डर, बहुत स्वाभाविक हो सकता है। दूसरा डर, बहुत साइकोलॉजिकल, बहुत मानसिक और बहुत भीतरी है। हम सब डरे हुए हैं। बहुत भीतरी डर है, सब तरफ से मन को पकड़े हुए हैं। और हमारे भीतरी डरो का आधार वही होगा, जिसके आधार पर हमने दूसरे डरो को बाहर कर दिया है।
      हम गाते हैं न कि निर्बल के बल राम! गा रहे हैं सुबह से बैठकर कि हे भगवान, निर्बल के बल तुम्हीं हो!
      किसी निर्बल का कोई बल राम नहीं है। जिसकी निर्बलता गयी, वह राम हो जाता है।
निर्बलता गयी कि राम और श्याम में फासला ही नहीं रह जाता। निर्बलता ही फासला है, वही डिस्टेंस है। निर्बल के बल राम नहीं होते। निर्बलता राम होती ही नहीं। निर्बलता सिर्फ राम की कल्पना है। और निर्बलता को बचाने के लिए ढाल है। और सारी प्रार्थना, पूजा, भय को छिपाने का उपाय है। 'सिक्योरिटी मेजरमेंट' है, और कुछ भी नहीं है। इंतजाम है सुरक्षा का।
      कोई बैंक में इंतजाम करता है रुपये डालकर, कोई राम—राम—राम जपकर इंतजाम करता है भगवान की पुकार करके। सब इंतजाम है।
      लेकिन इंतजाम से भय कभी नहीं मिटता। ज्यादा से ज्यादा निर्भय हो सकते हैं आप, लेकिन भय कभी नही मिटता। निर्भय से कोई अंतर नहीं पड़ता, भय मौजूद रह जाता है। भय मौजूद ही रहता है, भीतर सरकता चला जाता है।
      जिस व्यक्ति के भीतर भय की पर्त चलती रहती है, वह व्यक्ति कभी भी युवा चित्त का नहीं हो सकता। उसकी सारी आत्मा बूढ़ी ह्में जाती है। फियर जो है, वह क्रिपलिग है, वह पंगु कर देता है, सब हाथ—पैर तोड़ डालता है, सब अपंग कर देता है।
      और हम सब भयभीत हैं—क्या करें? अभय कैसे हों? फियरलेसनेस कैसे आये?
      निर्भयता तो हम सब जानते हैं, आ सकती है। दंड—बैठक लगाने से भी एक तरह की निर्भयता आती है, क्योंकि आदमी जंगली जानवर की तरह हो जाता है। एक तरह की निर्भयता आती है। लोग ऊब जाते हैं दंड बैठक लगाने से। एक तरह की निर्भयता आ जाती है। वह निर्भयता नहीं है अभय। तलवार रख ले कोई। खुद के हाथ में न रखकर, दूसरे के हाथों में रख दे।
पद पर पहुंच जाये कोई, तो एक तरह की निर्भयता आ जाती है। दूनिया भर के सब भयभीत लोग पदों की खोज करते हैं। पद एक सुरक्षा देता है। अगर मैं राष्ट्रपति हो जाऊं तो जितना सुरक्षित रहूंगा, बिना राष्ट्रपति हुए नहीं रह सकता। राष्ट्रपति के लिए, जितने भयभीत लोग हैं, सब दौड़ करते रहते हैं। डर गये हैं। भय है अकेले होने का। सुरक्षा चाहिए, इंतजाम चाहिए। जिनको हम बहुत बड़े—बड़े पदों पर देखते हैं, यह मत सोचना कि यह किसी निर्भयता के बल पर वहां पहुंच जाते हैं। वे निर्भयता के अभाव में ही पहुंचते हैं, भीतर भय है।
      हिटलर के संबंध में मैंने सुना है कि हिटलर अपने कंधे पर हाथ किसी को भी नहीं छुआ सकता है। इसीलिए शादी भी नहीं की, कम से कम पत्नी को तो छुआना ही पड़ेगा। शादी से डरता रहा कि शादी की, तो पत्नी तो कम से कम कमरे में सोयेगी, लेकिन भरोसा क्या है कि पत्नी रात में गर्दन न दबा दे। हिटलर दिखता होगा, बहुत बहादुर आदमी।
      ये बहादुर आदमी सब दिखते हैं। यह सब बहादुरी बिलकुल ऊपरी है, भीतर बहुत डरे हुए आदमी हैं।
      हिटलर किसी से ज्यादा दोस्ती नहीं करता था, क्योंकि दोस्त के कारण जो सुरक्षा है, जो व्यवस्था है, वह टूट जाती है। दोस्तों के पास बीच के फासले टूट जाते हैं। हिटलर के कंधे पर कोई हाथ नहीं रख सकता था। हिमलर या गोयबल्‍स भी नहीं। कंधे पर हाथ कोई भी नहीं रख सकता है। एक फासला चाहिए, एक दूरी चाहिए। कंधे पर हाथ रखने वाला आदमी खतरनाक हो सकता है। गर्दन पास ही है, कंधे से बहुत दूर नहीं है।
      एक औरत हिटलर को बहुत प्रेम करती रही। लेकिन भयभीत लोग कहीं प्रेम कर सकते हैं? हिटलर उसे टालता रहा, टालता रहा, टालता रहा। आप जानकर हैरान होंगे, मरने के दो दिन पहले, जब मौत पकी हो गयी, जब बर्लिन पर बम गिरने लगे, तो हिटलर जिस तलघर में छिपा हुआ था, उसके सामने दुश्मन की गोलियां गिरने लगीं और दुश्मन के पैरों की आवाज बाहर सुनायी देने लगी, द्वार पर युद्ध होने लगा, और जब हिटलर को पका हो गया कि मौत निश्‍चित है, अब मरने से बचने का कोई उपाय नहीं है, तो उसने पहला काम यह किया है कि एक मित्र को भेजा और कहा कि जाओ आधी रात उस औरत को ले आओ। कहीं कोई पादरी सोया—जगा मिल जाये, उसे उठा लाओ। शादी कर लूं। मित्रों ने कहा, यह कोई समय है शादी करने का? हिटलर ने कहा, अब कोई भय नहीं है, अब कोई भी मेरे निकट हो सकता है, अब मौत बहुत निकट है। अब मौत ही करीब आ गयी है, तब किसी को भी निकट लिया जा सकता है।
      दो घंटे पहले हिटलर ने शादी की तलघर में! सिर्फ मरने के दो घंटे पहले!
      तो पुरोहित और सेक्रेटरी को बुलाया था। उनकी समझ के बाहर हो गया कि यह किसलिए शादी हो रही है?
      इसका प्रयोजन क्या है? हिटलर होश में नहीं है। पुरोहित ने किसी तरह शादी करवा दी है। और दो घंटे? उन्होंने जहर खाकर सुहागरात मना ली है और गोली मार ली है—दोनो ने! यह आदमी मरते वक्त तक.. भी नहीं कर सका, क्योंकि दूसरे आदमी का साथ रहना, पास लेना खतरनाक हो सकता है।
      दुनिया के जिन बड़े बहादुरों की कहानियां हम इतिहास में पढ़ते है, बडी झूठी हैं। अगर दुनिया के बहादुरों भीतरी मन में उतरा जा सके तो वहा भयभीत आदमी मिलेगा। चाहे नादिर हो, चाहे चंगेज हो, चाहे तैमूर हो, वहां भीतर भयभीत आदमी मिलेगा।
      नादिर लौटता था आधी दूनिया जीतकर, और ठहरा है एक रेगिस्तान में। रात का वक्त है। रात को सो सकता था। कैसे सोता? डर सदा भीतर था। तंबू में सोया। चोर घुस गये है तंबू में। नादिर को मारने नही हैं। कुछ संपत्ति मिल जाये, लेने को घुस गये हैं। नादिर घबड़ाकर बाहर निकला है। भागा है डरकर, तंबूकी खूंटी में पैर फंसकर गिर पड़ा है और मर गया है।
      वे जो बड़े पदों की खोज में, बड़े धन की खोज में, बड़े यश की खोज मे—लोग लगे है, वे सिर्फ सुरक्षा रहे हैं। भीतर एक भय है। इतंजाम कर लेना चाहते हैं। भीतर एक दीवाल बना लेना चाहते हैं, कोई डर नहीं है कल बीमारी आये, गरीबी आये, भिखमंगी आये, मृत्यु आये कोई डर नहीं है। सब इतंजाम किये लेते हैं। और लोग ऐसा इंतजाम करते हैं, कुछ लोग भीतरी इंतजाम करते हैं!
      रोज भगवान की प्रार्थना कर रहे है—कि कुछ भी हो जाये। इतने दिन तक जो चिल्लाये है, वह वक्त पर पड़ेगा। इतने नारियल चढ़ाये, इतनी रिश्वत दी, वक्त पर धोखा दे गये हो?
      भय में आदमी भगवान को भी रिश्वत देता रहा है!
और जिन देशो मे भगवान को इतनी रिश्वत दी गयी हो, उन देशों में मिनिस्टर रूपी भगवानों को रिश्वत दी लगी हो तो कोई मुश्किल है, कोई हैरानी है? और जब इतना बड़ा भगवान रिश्वत ले लेता हो तो छोटे—' मिनिस्टर ले लेते हों तो नाराजगी क्या है? भय है, भय की सुरक्षा के लिए हम सब उपाय कर रहे है। क्या ऐसे कोई आदमी अभय हो सकता है? क भी नहीं। अभय होने का क्या रास्ता है? सुरक्षा की व्यवस्था अभय होने का रास्ता नहीं है।
      असुरक्षा की स्वीकृति अभय होने का रास्ता है, 'ए टोटल एक्सेऐंस आफ इनसिक्योरिटी, जीवन असुरक्षित' इसकी परिपूर्ण स्वीकृति मनुष्य को अभय कर जाती है।
      मृत्यु है, उससे बचने का कोई उपाय नहीं है, उससे भागने का कोई उपाय नहीं है वह है। वह जीवन का एक तथ्य है। वह जीवन का ही एक हिस्सा है। वह जन्म के साथ ही जुड़ा है।
      जैसे एक डंडे में एक ही छोर नहीं होता, दूसरा छोर भी होता है। और वह आदमी पागल है, जो एक छोर स्वीकारे और दूसरे को इनकार कर लेता है। सिक्‍के में एक ही पहलू नहीं होता है, दूसरा भी होता है। और वह पागल है, जो एक को खीसे में रखना चाहे और दूसरे से छुटकारा पाना चाहे। यह कैसे हो सकेगा?
      जन्म के साथ मृत्यु का पहलू जुडा है। मृत्यु है, बीमारी है,असुरक्षा है; कुछ भी निश्‍चित नहीं है, सब अनसर्टेन है।
      जिंदगी ही एक अनसटेंनटी है, जिंदगी ही एक अनिश्‍चित है।
      सिर्फ मौत एक निश्‍चित है। मरे हुए को कोई डर नहीं रह जाता। जिंदा में सब असुरक्षा है। कदम—कदम पर असुरक्षा है।
      जो क्षण भर पहले मित्र था, क्षण भर बाद मित्र होगा, यह तय नहीं है। इसे जानना ही होगा, मानना ही होगा। क्षण भर पहले जो मित्र था, वह क्षण भर बाद मित्र होगा, यह तय नहीं है। क्षण भर पहले जो प्रेम कर रहा था, वह क्षण भर बाद फिर प्रेम करेगा, यह निश्‍चित नहीं है। क्षण भर पहले जो व्यवस्था थी, वह क्षण भर बाद नहीं खो जायेगी, यह निश्‍चित नहीं है। सब खो सकता है, सब जा सकता है, सब विदा हो सकता है। जो पत्ता अभी हरा है, वह थोड़ी देर बाद सूखेगा और गिरेगा। जो नदी वर्षा में भरी रहती है, थोड़ी देर बाद सूखेगी और रेत ही रह जायेगी।
      जीवन जैसा है उसे जान लेना, और जीवन में जो अनिश्‍चित है, उसका परिपूर्ण बोध और स्वीकृति मनुष्य को अभय कर देती है। फिर कोई भय नहीं रह जाता।
      मैं भावनगर से आया। एक चित्रकार को उसके मां—बाप मेरे पास ले आए। योग्य, प्रतिभाशाली चित्रकार है, लेकिन एक अजीब भय से सारी प्रतिभा कुंठित हो गयी है। एक भय पकड़ गया है, जो जान लिये ले रहा है। अमरीका भी गया था वह, वहां भी चिकित्सा चली। मनोवैज्ञानिकों ने मनोविश्लेषण किये, साइकोएनलिसिस की। कोई फल नहीं हुआ सब समझाया जा चुका है, कोई फल नहीं हुआ। मेरे पास लाये हैं,कहा कि हम मुश्किल में पड़ गये हैं। कोई फल होता नहीं है। सब समझा चुके हैं, सब हो चुका है। इसे क्या हो गया है, यह एकदम भयभीत है।
      मैंने पूछा, किस बात से भयभीत है? तो उन्होंने कहा कि रास्ते पर कोई लंगड़ा आदमी दिख जाये, तो यह इसको भय हो जाता है कि कहीं मैं लंगड़ा न हो जाऊं। अब बड़ी मुश्किल है। अंधा आदमी मिल जाये, तो घर आकर रोने लगता है कि कहीं मैं अंधा न हो जाऊं। हम समझाते हैं कि तू अंधा क्यों होगा, तू बिलकुल स्वस्थ है, तुझे कोई बीमारी नहीं है। कोई आदमी मरता है रास्ते पर, बस यह बैठ जाता है। यह कहता है कहीं मैं मर न जाऊं। हम समझाते हैं, समझाते—समझाते हार गये। डाक्टरों ने समझाया, चिकित्सकों ने समझाया, इसकी समझ में नहीं पड़ता है।
      मैंने कहा, तुम समझाते ही गलत हो। वह जो कहता है, ठीक ही कहता है। गलत कहां कहता है? जो आदमी आज अंधा है, कल उसके पास भी आंख थी। और जो आदमी आज लंगड़ा है, हो सकता है कि उसके पास भी पैर हों। और आज उसके पास पैर हैं, कल वह लंगड़ा हो सकता है। और आज जिसके पास आंख है, कल वह अंधा हो सकता है। इसमें यह युवक गलत नहीं कह रहा है। गलत तुम समझा रहे हो। और तुम्हारे समझाने से इसका भय बढ़ता जा रहा है। तुम कितना ही समझाओ कि तू अंधा नहीं हो सकता है। गारंटी कराओ। कौन कह सकता है कि मैं अंधा नहीं हो सकता। सारी दूनिया कहे तो भी निश्‍चित नहीं है कि मैं अंधा नहीं हो सकता। अंधा मैं हो सकता हूं क्योंकि आंखें  अंधी हो सकती हैं। मेरी आंखों ने कोई ठेका लिया है कि अंधी नहीं हों! पैर लंगड़े हुए हैं। मेरा पैर लंगड़ा हो सकता है। आदमी पागल हुए हैं। मैं पागल हो सकता हूं। जो किसी आदमी के साथ कभी भी घटा है—वह मेरे साथ भी घट सकता हूएए, क्योंकि सारी संभावना सदा है।
      मैंने कहा, इस युवक को तुम गलत समझा रहे हो। तुम्हारे गलत समझाने से —यह कितनी ही कोशिश करे कि मैं अंधा नहीं हो सकता, लेकिन इसे दिखायी पड़ता है कि अंधे होने की संभावना—तुम कितना ही कहो कि नहीं हो सकता है—मिटती नहीं।
      उस युवक ने कहा, यही मेरी तकलीफ है। यह जितना समझाते हैं, उतना मैं भयभीत हुए चला जा रहा हूं। मैंने उससे कहा कि यह बिलकुल ही गलत समझाते हैं। मैं तुमसे कहता हूं तुम अंधे हो सकते हो, तुम लंगड़े हो सकते हो, तुम कल सुबह मर सकते हो, तुम्हारी पत्नी तुम्हें कल छोड़ सकती है, मां तुम्हारी दुश्मन हो सकती है, मकान गिर सकता है, गांव नष्ट हो सकता है, सब हो सकता है। इसमें कुछ इनकार करने जैसा जरा भी नहीं है। इसे स्वीकार करो। मैंने कहा, तुम जाओ, इसे स्वीकार करो। सुबह मेरे पास आना।
      यह युवक गया है—तभी मैंने जाना है कि वह कुछ और ही होकर जा रहा है। अब कोई लड़ाई नहीं है। जो हो सकता है, और जिससे बचाव का कोई उपाय नहीं है, और जिसके बचाव का कोई अर्थ नहीं है और जिसके लड़ने की मानसिक तैयारी बेमानी है। वह हलका होकर गया है।
      वह सुबह आया है और उसने कहा कि तीन साल में मैं पहली दफे सोया हूं। आश्रर्य, कि यह बात स्वीकार कर लेने से हल हो जाती है कि मैं अंधा हो सकता हूं। ठीक है, हो सकता हू।
      मैंने कहा, तुम डरते क्यों हो अंधे होने से? उसने कहा कि डरता इसलिए हूं कि फिर चित्र न बना पाऊंगा। तो मैंने कहा, जब तक अंधे नहीं हो, चित्र बनाओ, व्यर्थ में समय क्यों खोते हो। जब अंधे हो जाओगे, नहीं बना पाओगे, पका है। इसलिए बना लो, जब तक आंख—हाथ है, बना लो। जब आंख विदा हो जाये, तब कुछ और करना।
      लेकिन आंख विदा हो सकती है। सारा जीवन ही विदा होगा एक दिन, सब विदा हो सकता है। किसी की सब चीजें इकट्ठी विदा होती हैं, किसी की फुटकर—फुटकर विदा होती हैं, इसमें झंझट क्या है? एक आदमी होलसेल चला जाता है, एक आदमी पार्ट—पार्ट में जाता है, टुकड़े—टुकड़े में जाता है। किसी की आंख चली गयी तो कुछ और, फिर कुछ और गया। कोई आदमी इकट्ठे ही चला गया।
इकट्ठे जाने वाले समझते हैं कि जिनके थोड़े— थोड़े हिस्से जा रहे हैं, वे अभागे हैं। बड़ी मुश्किल बात है। इतना ही क्या कम सौभाग्य है कि सिर्फ आंख गयी है। अभी पैर नहीं गया, अभी पूरा नहीं गया। इतना ही क्या कम सौभाग्य है कि सिर्फ पैर गये हैं, अभी पूरा आदमी नहीं गया है।
      बुद्ध का एक शिष्य था.. उस युवक से मैंने यह कहानी कही थी, वह मैं आपको अभी कहता हूं। उस युवक से मैंने कहा कि अब तू भय के बाहर हो गया है।
      इनसिक्योरिटी को जिसने स्वीकार कर लिया है, वह भय के बाहर हो जाता है, वह अभय हो जाता है।
      बुद्ध का एक शिष्य है पूर्ण। और बुद्ध ने उसकी शिक्षा पूरी कर दी है और उससे कहा है, अब तू जा और खबर पहुंचा लोगों तक। पूर्ण ने कहा, मैं जाना चाहता हूं सूखा नाम के एक इलाके में।
बुद्ध ने कहा, वहां मत जाना, वहां के लोग बहुत बुरे हैं। मैंने सुना है, वहां कोई भिक्षु कभी भी गया तो अपमानित होकर लौटा है, भाग आया है डरकर। बड़े दुष्ट लोग है, वहां मत जाना।
      उस पूर्ण ने कहा, लेकिन वहां कोई नहीं जायेगा, तो उन दुष्टों का क्या होगा? बड़े भले लोग हैं, सिर्फ गालियां ही देते हैं, अपमानित ही करते हैं, मारते नहीं। मार भी सकते थे, कितने भले लोग हैं, कितने सज्जन हैं?
      बुद्ध ने कहा, समझा। यह भी हो सकता है कि वे तुझे मारें भी, पीटें भी। पीड़ा भी पहुंचाये, काटे भी छेदें, पत्थर मारें, फिर क्या होगा?
      तो पूर्ण ने कहा, यही होगा भगवान, कि कितने भले लोग हैं कि सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते हैं। मार डाल सकते थे।
      बुद्ध ने कहा, आखिरी सवाल। वे तुझे मार भी डाल सकते हैं, तो मरते क्षण में तुझे क्या होगा?
पूर्ण ने कहा, अन्तिम क्षण में धन्यवाद देते विदा हो जाऊंगा कि कितने अच्छे लोग हैं कि इस जीवन से मुक्ति दी, जिसमें भूल—चूक हो सकती थी।
      बुद्ध ने कहा, अब तू जा। अब तू अभय हो गया। अब तुझे कोई भय न रहा। तूने जीवन की सारी असुरक्षा सारे भय को स्वीकार कर लिया। तूने निर्भय बनने की कोशिश ही छोड़ दी।
      ध्यान रहे, भयभीत आदमी निर्भय बनने की कोशिश करता है। उस कोशिश से भय कभी नहीं मिटता है। उसको उपलब्ध होता है—जो भय है, ऐसी जीवन की स्थिति है—इसे जानता है, स्वीकार कर लेता है। भय के बाहर हो जाता है। और युवा चित्त उसके भीतर पैदा होता है, जो भय के बाहर हो जाता है।
      एक सूत्र युवा चित्त के जन्म के लिए, भय के बाहर हो जाने के लिए अभय है।
      और दूसरा सूत्र.?? पहला सूत्र है, बूढ़े चित्त का मतलब है 'क्रिपल्ड विद फियर', भय से पुंज।
      और दूसरा सूत्र है... बूढ़े चित्त का अर्थ है, 'बर्डन विद नालेज', ज्ञान से बोझिल।
      जितना बूढ़ा चित्त होगा उतना ज्ञान से बोझिल होगा। उतने पांडित्य का भारी पत्थर उसके सिर पर होगा। जितना युवा चित्त होगा, उतना ज्ञान से मुक्त होगा।
      उसने स्वयं ही जो जाना है, जानते ही उसके बाहर हो जायेगा और आगे बढ़ जायेगा। 'ए कास्टेंट अवेयरनेस आफ नाट नोन'। एक सतत भाव उसके मन में रहेगा, नहीं जानता हूं। कितना ही जान ले, उस जानने को किनारे हुआ, न जानने के भाव को सदा जिंदा रखेगा। वह अतीत में भी क्षमता रखेगा। रोज सब सीख सकेगा, पल सीख सकेगा। कोई ऐसा क्षण नहीं होगा, जिस दिन वह कहेगा कि मैं पहले से ही जानता हूं इसलिए सिखने की अब कोई जरूरत नहीं है। जिस आदमी ने ऐसा कहा, वह बूढ़ा हो गया।
      युवा चित्त का अर्थ है : सीखने की अनंत क्षमता।
      बूढ़े चित्त का अर्थ है : सीखने की क्षमता का अंत।
      और जिसको यह खयाल हो गया, मैंने जान लिया है, उसकी सीखने की क्षमता का अंत हो जाता है।
      और हम सब भी जान से बोझिल हो जाते हैं। हम ज्ञान इसीलिए इकट्ठा करते हैं कि बोझिल हो जायें। ज्ञान हम सिर पर लेकर चलते हैं। जान हमारा पंख नहीं बनता है, ज्ञान हमारा पत्थर बन जाता है।
      ज्ञान बनना चाहिए पंख। ज्ञान बनता है पत्थर।
      और ज्ञान किनका पंख बनता है, जो निरंतर और—और—और जानने के लिए खुले हैं मुक्त हैं, द्वार जिनके बंद नहीं है।
      एक गांव में एक फकीर था। उस गांव के राजा को शिकायत की गयी कि वह फकीर लोगों को भ्रष्ट कर रहा है। असल में अच्छे फकीरों ने दूनिया को सदा भ्रष्ट किया ही है। वे करेंगे ही, क्योंकि दुनिया भ्रष्ट है। और इसको बदलने के लिए भ्रष्ट करना पड़ता है। दो भ्रष्टताएं मिलकर सुधार शुरू होता है। दूनिया भ्रष्ट है। इस दुनिया को ऐसा ही स्वीकार कर लेने के लिए कोई संन्यासी, कोई फकीर कभी राजी नहीं हुआ है।
      गांव के लोगों ने खबर की, पंडितों ने खबर की कि यह आदमी भ्रष्ट कर रहा है। ऐसी बातें सिखा रहा है, जो किताबों में नहीं हैं। और ऐसी बातें कह रहा है कि लोगों का संदेह जग जाये। और लोगों को ऐसे तर्क दे रहा है कि लोग भ्रमित हो जायें, संदिग्ध हो जायें।
      राजा ने फकीर को बुलाया दरबार में, और कहा कि मेरे दरबार के पंडित कहते हैं कि तुम नास्तिक हो। तुम लोगों को भ्रष्ट कर रहे हो। तुम गलत रास्ता दे रहे हो। तुम लोगों में संदेह पैदा कर रहे हो।
      उस फकीर ने कहा, मैं तो सिर्फ एक काम कर रहा हूं कि लोगों को युवक बनाने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन अगर तुम्हारे पंडित ऐसा कहते हैं तो मैं तुम्हारे पंडितों से कुछ पूछना चाहूंगा।
राजा के बड़े सात पंडित बैठ गये। उन्होंने सोचा वे तैयार हो गये!
      पंडित वैसे भी एवररेडी, हमेशा तैयार रहता है, क्योंकि रेडिमेड उत्तर से पंडित बनता है। पंडित के पास कोई बोध नहीं होता है। जिसके पास बोध हो, वह पंडित बनने को राजी नहीं हो सकता है। पंडित के पास तैयार उत्तर होते हैं।
      वे तैयार होकर बैठ गए हैं। उनकी रीढें सीधी हो गयीं—जैसे छोटे बच्चे स्कूल में परीक्षाएं देने को तैयार हो जाते हैं। छोटे बच्चों में, बड़े पंडितों में बहुत फर्क नहीं। परीक्षाओं में फर्क हो सकता है। तैयार हो गया पंडितों का वर्ग। उन्होंनें कहा, पूछो। सोचा की शायद पूछेगा, ब्रह्म क्या है? मोक्ष क्या है? आत्मा क्या है? कठिन सवाल पूछेगा। तो सब उत्तर तैयार थे। उन्होंने मन में दुहरा लिए जल्दी से कि क्या उत्तर देने हैं।
      जिस आदमी के पास उत्तर नहीं होता है, उसके पास बहुत उत्तर होते हैं! और जिसके पास उत्तर होता है, उसके पास तैयार कोई उत्तर नहीं होता है! प्रश्र आता है तो उत्तर पैदा होता है। उनके पास प्रश्र पहले से तैयार होते हैं, जिनके पास बोध नहीं होता है! क्योंकि बोध न हो तो प्रश्र तैयार, प्रश्र का उत्तर तैयार होना चाहिए, नहीं तो वक्त पर मुश्किल हो जायेगा।
      उन पंडितों ने जल्दी से अपने सारे जान की खोजबीन कर ली होगी। उसने चार—पांच कागज के टुकड़े उन पंडितों के हाथ में पक्का दिये, एक—एक टुकडा। और कहा कि एक छोटा—सा सवाल पूछता हूं व्हाट इज ब्रेड? रोटी क्या है?
      पंडित मुश्किल में पड़ गए, क्यौंकि किसी किताब में नहीं लिखा हुआ है, किसी उपनिषद में नहीं, किसी वेद में नहीं, किसी पुराण में नहीं। व्हाट इज ब्रेड, रोटी क्या है? कहा कि कैसा नासमझ आदमी है! कैसा सरल सवाल पूछता है।
      लेकिन वह फकीर समझदार रहा होगा। उसने कहा, आप लिख दें एक—एक कागज पर। और ध्यान रहे एक दूसरे के कागज को मत देखना, क्योंकि पंडित सदा चोर होते हैं। वह सदा दूसरों के उत्तर सीख लेते हैं। आसपास मत देखना। जरा दूर—दूर हटकर बैठ जाओ। अपना—अपना उत्तर लिख दो।
      राजा भी बहुत हैरान हुआ। राजा ने कहा, क्या पूछते हो तुम? उसने कहा, इतना उत्तर दे दें तो गनीमत है। पंडितों से ज्यादा आशा नहीं करनी चाहिए। बड़ा सवाल बाद में पूछूंगा, अगर छोटे सवाल का उत्तर आ जाये।
      पहले आदमी ने बहुत सोचा, रोटी, यानी क्या? फिर उसने लिखा कि रोटी एक प्रकार का भोजन है। और क्या करता? दूसरे आदमी ने बहुत सोचा रोटी यानी क्या? तो उसने लिखा, रोटी आटा, पानी और आग का जोड़ है। और क्या करता? तीसरे आदमी ने बहुत सोचा, रोटी यानी क्या? उसे उत्तर नहीं मिलता। तो उसने लिखा, रोटी भगवान का एक वरदान है। पांचवें ने लिखा कि रोटी एक रहस्‍य है, एक पहेली है, क्योंकि रोटी खून कैसे बन जाती है, यह भी पता नहीं। रोटी एक बड़ा रहस्य है, रोटी एक मिस्ट्री है। छठे ने लिखा, रोटी क्या है? यह सवाल ही गलत है। यह सवाल इसलिए गलत है कि इसका उत्तर ही पहले से कहीं लिखा हुआ नहीं है। गलत सवाल पूछता है यह आदमी। सवाल वह पूछने चाहिए, जिनके उत्तर लिखें हो। सातवें आदमी ने कहा कि मैं उत्तर देने से इनकार करता हूं क्योंकि उत्तर तब दिया जा सकता है, जब मुझे पता चल जाये कि पूछने वाले ने किस दृष्टि से पूछा है? तो रोटी यानी क्या? हजार दृष्टिकोण हो सकते हैं, हजार उत्तर हो सकते हैं। समाजदवादी रहा होगा। कहा कि, यह भी हो सकता है, वह भी हो सकता है।
      सातों उत्तर लेकर राजा के हाथ में फकीर ने दे दिये और उससे कहा कि ये आपके पंडित हैं। इन्हें यह पता नहीं कि रोटी क्या है? और इनको यह पता है कि नास्तिक क्या है, आस्तिक क्या है! लोग किससे भ्रष्ट होंगे, किससे बनेंगे, यह इनको पता हो सकता है!
      राजा ने कहा पंडितों, एकदम दरवाजे के बाहर हो जाओ। पंडित बाहर हो गए। उसने फकीर से पूछा कि तुमने ख. मुश्किल में डाल दिया है।
      फकीर ने कहा, जिनकी खोपडी पर भी जान का बोझ है, उन्हें सरल—सा सवाल मुश्किल में डाल सकता है। ज्यादा बोझ, उतनी समझ कम हो जाती है। क्योंकि यह खयाल पैदा हो जाता है बोझ से कि समझ तो है। और समझ ऐसी चीज है कि कास्टेंटली क्रिएट करनी पड़ती है, है नहीं। कोई ऐसी चीज नहीं है कि आपके भीतर छ है समझ। उसे आप रोज पैदा करिये तो वह पैदा होती है, और बंद कर दीजिये तो बंद हो जाती है।
      समझ साइकिल चलाने जैसी है। जैसे एक आदमी साइकिल चला रहा है। अब साइकिल चल पडी है। अब वह कहता है, साइकिल तो चल पड़ी है, अब पैडल रोक लें। अब पैडल रोक लें, साइकिल चलेगी? चार—छह—कदम के बाद गिरेगा। हाथ—पैर तोड़ देगा। साइकिल का चलाना निरंतर चलने के ऊपर निर्भर है।
      प्रतिभा भी निरंतर गति है। जीनियस कोई 'डैड स्टेटिक एन्टाइटी' नहीं है। प्रतिभा कोई ऐसी चीज नहीं है कि कहीं रखी है भीतर, कि आपके पास कितनी प्रतिभा है, सेर भर और किसी के पास दो सेर! ऐसी कोई चीज नहीं प्रतिभा।
      प्रतिभा मूवमेंट है, गति है, निरंतर गति है।
      इसलिए निरंतर जो सृजन करता है, उसके भीतर, मस्तिष्क, बुद्धि और प्रतिभा, प्रज्ञा पैदा होती है। जो सृजन बंद कर देता है उसके भीतर जंग लग जाती है और सब खत्म हो जाती है।
      रोज चलिए। और चलेगा कौन? जिसको यह खयाल नहीं है कि मैं पहुंच गया। जिसको यह खयाल हो गया कि पहुंच गया, वह चलेगा क्यों? वह विश्राम करेगा, वह लेट जाएगा। जान का बोध पहुंच जाने का खयाल पैदा करवा देता है कि हम पहुंच गये, पा लिया, जान लिया, अब क्या है? रुक गये।
      ज्ञान कितना ही आये, और ज्ञान आने की क्षमता निरंतर शेष रहनी चाहिए। वह तभी रह सकती है, जब ज्ञान बोझ न बने। जान को हटाते चलें। रोज सीखें। और रोज जो सीख जायें, राख की तरह झाडू दें। और कचरे कि तरह—जैसे सुबह फेंक दिया था घर के बाहर कचरा, ऐसे रोज सांझ, जो जाना, जो सीखा, उसे फेंक दें। ताकि कल आप फिर ताजे सुबह उठें, और फिर जान सकें, फिर सीख सकें, सीखना जारी रहे।
      ध्यान रहे, क्या हम सीखते हैं, यह मूल्यवान नहीं है। कितना हम सीखते हैं—उस सीखने की प्रक्रिया से गुजरने वाली आला निरंतर जवान होती चली जाती है।
      सुकरात जितना जवानी में रहा होगा मरते वक्त, उससे ज्यादा जवान है। क्योंकि मरते वक्त भी सीखने को तैयार है। मर रहा है, जहर दिया जा रहा है, जहर बाहर बांटा जा रहा है। सारे मित्र रो रहे हैं, और सुकरात उठ—उठकर बाहर जाता है, और जहर घोंटने वाले से पूछता है बड़ी देर लगाते हो! समय तो हो गया, सूरज अब डूबा जाता है। वह जहर घोंटने वाला कहने लगा, पागल हो गये हो सुकरात! मैं तुम्हारी वजह से धीरे— धीरे घोंटता हूं कि तुम थोड़ी देर और जिंदा रह लो। ताकि इतने अच्छे आदमी का पृथ्वी पर और थोड़ी देर रहना हो जाये। तुम पागल हो, तुम खुद ही इतनी जल्दी मचा रहे हो, तुम्हें जल्दी क्या है? उसके मित्र पूछते हैं,इतना जल्दी क्या है? क्यों इतनी मरने की आतुरता है?
      सुकरात कहता है, मरने की आतुरता नहीं; जीवन को जाना, मौत भी जानने का बडा मन हो रहा है कि क्या है मौत! क्या है मौत? मरने के क्षण पर खड़ा हुआ आदमी जानना चाहता है कि क्या है मौत! यह आदमी जवान है, इसको मार सकते हो? इसका मारना बहुत मुश्‍किल है। इसको मौत भी नहीं मार सकती है। यह मौत को भी जान लेगा और पार हो जायेगा।
      जो जान लेता है, वह पार हो जाता है। जिसे हम जान लेते हैं, उससे पार हो जाते हैं।
      लेकिन हम मरने के पहले ही जानना बंद कर देते हैं। आमतौर से बीस साल के, इक्कीस साल के करीब आदमी की बुद्धि ठप हो जाती है। उसके बाद बुद्धि विकसित नहीं होती, सिर्फ संग्रह बढ़ता चला जाता है—सिर्फ संयत। दस पत्थर की जगह पन्द्रह पत्थर हो जाते हैं, बीस पत्थर हो जाते हैं। दस किताबों की जगह पचास किताबें हो जाती हैं, लेकिन क्षमता जानने की फिर आगे नहीं बढ़ती। बस इक्कीस साल में आदमी बुद्धि के हिसाब से मर जाता है! बूढ़ा हो जाता है।
      कुछ लोग और जल्दी मरना चाहते हैं—और जल्दी! और जो जितना जल्दी मर जाता है, समाज उसको आदमी ही आदर देता है। तो जितना देर जिंदा रहेगा, उससे उतनी तकलीफ होती है समाज को। क्योंकि जिंदा आदमी सोचने वाला आदमी, खोजने वाला आदमी नए पहलू देखता है, नये आयाम देखता है, 'डिस्टर्बिंग ' होता है। बहुत—सी जगह चीजों को तोड़ता—मरोड़ता मालूम होता है। हम सब जान के बोझ से दब गये है।
      मैंने सुना है, एक आदमी घोड़े पर सवार जा रहा है, एक गांव को। गांव के लोगों ने उसे घेर लिया और कहा कि तुम बहुत अदभुत आदमी हो। वह आदमी अदभुत रहा होगा। वह अपना पेटी बिस्तर सिर पर रखे था और घोड़े के ऊपर बैठा हुआ था। गांव के लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? घोड़े पर पेटी बिस्तर सा। लो। उसने कहा, घोड़े पर बहुत ज्यादा वजन हो जायेगा,इसलिए मैं अपने सिर पर रखे हुए हूं!
      उस आदमी ने सोचा कि घोड़े पर पेटी बिस्तर रखने से बहुत वजन हो जायेगा, कुछ हिस्सा बंटा लें। खुद घोड़े पर बैठे हुए है और पेटी बिस्तर अपने सिर पर रखे हुए है, ताकि अपने पर कुछ वजन पड़े और घोड़े पर वजन कम हो जाये।
      ज्ञान को अपने सिर पर मत रखिये। जिंदगी काफी समर्थ है। आप छोड़ दीजिए, आपकी जिंदगी की धारा उसे. संभाल लेगी। उसे सिर पर रखने की जरूरत नहीं। और सिर पर रखने से कोई फायदा नहीं। आप तो छोड़िए। जो भी उसमें एसेंशियल है, जो भी सारभूत है, वह आपकी चेतना का हिस्सा होता चला जायेगा।
      उसे सिर पर मत रखिए। किताबों को सिर पर मत रखिए, रेडीमेड उत्तर सिर पर मत रखिए। बंधे हुए उत्तर से बचिये, बंधे हुए ज्ञान से बचिए और भीतर एक युवा चित्त पैदा हो जायेगा। जो व्यक्ति ज्ञान के बोझ से मुक्त हो जाता है, जो व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है, वह व्यक्ति युवा हो जाता है।
      और जो व्यक्ति का होने की कोशिश में लगा है, अपने ही हाथों से, क्योंकि ध्यान रहे, मैं कहता हूं कि बुढ़ापा अर्जित है। बुढ़ापा है नहीं। हमारा अचीवमेंट है, हमारी चेष्टा से पाया हुआ फल है।
जवानी स्वाभाविक है, युवा चित्त होना स्वभाव है। वृद्धावस्था हमारा अर्जन है। अगर हम समझ जायें, चित्त से कैसे वृद्ध होता है, तो हम तत्क्षण जवान हो जायेंगे।
      बूढ़ा चित्त बोझ से भरा चित्त है, जवान चित्त निर्बोझ है। बोझिल है बूढा चित्त।
      जवान चित्त निर्बोझ है, वेटलेस है। जवान चित्त ताजा है। जैसे सुबह अंकुर खिला हो, निकला हो नये बीज से, ऐसा ताजा है। जैसे नया बच्चा पैंदा हुआ हो, जैसे नया फूल खिला हो, जैसी नयी ओस की बूंद गिरी हो, नयी किरण उठी हो, नया तारा जगा हो, वैसा ताजा है।
      बूढ़ा चित्त जैसे अंगारा बुझ गया, राख हो गया हो। पत्ता सड़ गया, गिर गया, मर गया। जैसे दुर्गंध इकट्ठी हो गयी हो, सड़ गयी हो लाश। इकट्ठी कर ली हैं लाशें, तो घर में रख दी हैं, तो बास फैल गयी हो। ऐसा है बूढ़ा चित्त।
      नया चित्त, ताजा चित्त, 'यंग माइंड' नदी की धारा की तरह तेज, पत्थरों को काटता, जमीन को तोड़ता, सतर की तरफ भागता है। अनंत, अज्ञात की यात्रा पर।
      और बूढ़ा चित्त? तालाब की तरह बंद। न कहीं जाता, न कहीं यात्रा करता है; न कोई सागर है आगे, न कोई पथ है, न कोई जमीन काटता, न पत्थर तोड़ता, न पहाड़ पार करता—कहीं जाता ही नहीं। बूढ़ा चित्त बंद, अपने में घूमता, सड़ता, गंदा होता। सूरज की धूप में पानी उड़ता और सूखता और कीचड़ होता चला जाता है। इसलिए जवान चित्त जीवन है, बूढा चित्त मृत्यु है।
      और अगर जीवन को जानना हो, परम जीवन को, जिसका नाम परमात्मा है, उस परम जीवन को, तो युवा चित्त चाहिए, यंग माइंड चाहिए।
      और हमारे हाथ में है कि हम अपने को बूढ़ा करें या जवान। हमारे हाथ में है कि हम वृद्ध हो जायें, सड़ जायें या युवा हों, ताजे और नये। नये बीज की तरह हमारे भीतर कुछ फूटे या पुराने रिकार्ड की तरह कुछ बार—बार रिपीट होता रहे। हमारे हाथ में है सब।
      आदमी के हाथ में है कि वह प्रभु के लिए द्वार बन जाये। तो युवा है भीतर, प्रभु के लिये द्वार बन गया।
      और जो बूढ़ा हो गया उसकी दीवाल बंद है, द्वार बन्द है। वह अपने में मरेगा, गलेगा, सड़ेगा। कब्र अतिरिक्त उसका कहीं और पहुंचना नहीं होता।
      लेकिन अब तक जो समाज निर्मित हुआ है, वह बूढ़े चित्त को पैदा करने वाला समाज है।
      एक नया समाज चाहिए, जो नये चित्त को जन्म देता हो। एक नयी शिक्षा चाहिए, जो बूढे चित्त को पैदा करती हो और नये चित्त को पैदा करती हो। एक नयी हवा, नया प्रशिक्षण, नयी दीक्षा, नया जीवन, एक वातावरण चाहिए, जहां अधिकतम लोग जवान हो सकें। बूढ़ा आदमी अपवाद हो जाये, वृद्ध चित्त अपवाद जाये, जहां युवा चित्त हो।
      अभी उलटी बात है। युवा चित्त अपवाद है। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई कृष्ण, कभी कोई क्राइस्ट युवा है और परमात्मा की सुगंध और गीत और नृत्य से भर जाता है। हजारों साल तक उसकी सुगंध खबर लाती है। इतनी ताजगी पैदा कर जाता है कि हजारों साल तक उसकी सुगंध आती है। उसके प्राणों से उठी हुई पुकार गूंजती रहती है। कभी ये मनुष्यता के लंबे इतिहास में दो—चार लोग युवा होते हैं। हम सब के ही पैदा होते हैं बूढ़े ही मर जाते हैं!
      लेकिन, हमारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार नहीं है। यह मैने दो बातें निवेदन कीं। इन पर सोचना। मेरी ' मान मत लेना। जो मानता है, वह बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। सोचना, गलत हो सकता हो, सब गलत हो सकता है। जो मैंने कहा, एक भी ठीक न हो। सोचना, खोजना, शायद कुछ ठीक हो तो वह आपके जीवन को युवा करने में मित्र बन सकता है।
      मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुग्रहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

अहमदाबाद,
20 अगस्त 1969, रात्रि
संभोग से समाधि की

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