उपनिषद--कठोपनिषद--ओशो (दसव निर्धूम—ज्‍योति की खोज—दसवां प्रवचन

निर्धूमज्‍योति की खोजदसवां प्रवचन





मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 11।।

अंगुष्ठमात्र: परुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भतभव्यस्य न ततो विजगुप्सते।। एतद्वै तत्।। 12।।

अंगुष्ठमात्र: परुषो ज्योतिरिवाधअमक:।
ईशानो भतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्व:।। एतद्वै तत्।। 13।।

यथोदकं दुगें वृष्टै पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानविधावति।। 14।।

यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति।
एवं मनेर्विजानतं आत्मा भवति गौतम।। 15।।



(शुद्ध) मन से ही यह परमात्मतत्व प्राप्त किए जाने योग्य है। इस जगत में ( एक परमात्मा के अतिरिक्त ) अन्य कुछ भी नहीं है। (इसलिए) जो इस जगत को अनेक की भांति देखता हैवह मनुष्य मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात बार—बार जन्मता—मरता रहता है। 11।।

अंगुष्ठमात्र (परिमाण वाला) परमपुरुष (परमात्मा) शरीर के मध्यभाग हृदयाकाश में स्थित हैजो कि भूत,वर्तमान और भविष्य का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करतायही है वह(परमात्म, जिसके विषय में तुमने पूछा था)।। 12।।
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष परमात्मा धूम्ररहित ज्योति की भांति है। भूत, (वर्तमान) और भविष्य पर शासन करने वाला वह परमात्मा ही आज है और वही कल भी है (अर्थात वह नित्य सनातन है )। यही है वह परमात्म जिसके विषय में तुमने पूछा था),। 13 ।।

जिस प्रकार ऊंचे शिखर पर बरसा हुआ जल पहाड़ के नाना स्थलों में चारों ओर चला जाता हैउसी प्रकार भिन्न— भिन्‍न धर्मों से युक्त देवअसुरमनुष्य आदि को परमात्मा से पृथक देखकर (उनका सेवन करने वाला मनुष्य ) उन्‍ही के पीछो दौड़ता रहता है (अर्थात उन्हीं के शुभाशुभ लोकों में और नाना ऊंच—नीच योनियों में भटकता रहता है) ।।14।।


हे गौतमवंशी नचिकेता। जैसे वर्षा का शुद्ध जल अन्य निर्मल जलों में मिलकर वैसा ही हो जाता है उसी प्रकार परमेश्वर को जानने वाले संतजन की आत्मा परमेश्वरमय हो जाती। 15।।

 निर्धूमज्योति की खोज



शुद्ध मन से ही यह परमात्मतत्व प्राप्त किए जाने योग्य है। इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इसलिए जो इस जगत को अनेक की भांति देखाता है, वह मनुष्‍य मृत्‍यु से मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है अर्थात बार-बार जन्‍मत-मरता रहता है।
शुद्ध मन को समझना होगा। साधारणत: शुद्ध मन के संबंध में जो धारणा है वह बड़ी भ्रांत है। शुद्ध मन से लोग समझते हैं—सात्विक विचारों वाला मन। शुद्ध मन से लोग समझते हैं—नैतिक रूप से प्रतिष्ठित मन। शुद्ध मन से लोग समझते हैं—जिसे हम बुरा कहते हैंअनैतिक कहते हैंअनाचार कहते हैंउस सबसे मुक्त हुआ मन।
लेकिन उपनिषद इस मन को भी अशुद्ध ही कहेंगे। उपनिषद की भाषा में शुद्ध मन वह हैजहां न तो बुरा रह जाता है और न भलाजहां न नीति रह जाती हैन अनीतिजहां न शुभ बचता हैन अशुभजहां विचार की सारी तरंगें ही समाप्त हो जाती हैं। जब तक विचार शेष हैतब तक मन अशुद्ध है।
साधु का मन भी अशुद्ध हैअसाधु का मन भी अशुद्ध है। असाधु के मन की अशुद्धि हैं—बुरे विचार। साधु के मन की अशुद्धि हैं—भले विचार। संत शुद्ध मन वाला है। न वहा अच्छे विचार बचे हैंन बुरे विचार बचे हैं। यह थोड़ा जटिल हैक्योंकि हम अच्छे विचार को ही शुद्धता मान लेते हैं।
अच्छा विचार भी विजातीय है। अच्छा विचार भी मन में तरंगें ही पैदा करता है। अच्छा विचार भी मन में अशांति लाता है। अच्छा विचार भी मन की सीमा बनाता है। शुद्ध मन तो तब हैजब वहां कोई भी विजातीय तत्व न रहा। ऐसा समझेंएक दर्पण है। दर्पण के सामने एक चोर खड़ा हैतो भी दर्पण अशुद्ध हैक्योंकि चोर का प्रतिबिंब बन रहा है। दर्पण के सामने एक साधु खड़ा हैतो भी दर्पण अशुद्ध हैदर्पण में साधु का प्रतिबिंब बन रहा है। जब दर्पण के सामने कोई भी नहीं खड़ा हैतभी दर्पण शुद्ध है।
इसलिए संत साधु नहीं हैसंत असाधु भी नहीं है। संत दोनों से भिन्न है।
संतत्व. की उपनिषद की धारणा बड़ी गहन है। शुद्धता की उपनिषद की धारणा बड़ी सूक्ष्म है। मन में जब तक कोई भी तरंग उठती हैतब तक मन अशुद्ध है। जब मन निस्तरंग हो जाता हैशून्य की भांति हो जाता हैदर्पण प्रतिबिंबों से खाली हो जाता है। न बुरा करने की वासना रह जाती हैन भला करने की वासना रह जाती हैन पाप मन को घेरता हैन पुण्य मन को घेरता हैन स्वार्थ मन को घेरता हैन परार्थ मन को घेरता हैजब मन को कुछ घेरता ही नहींतब मन असीम हो जाता है। तब मन की होने की क्षमता मात्र शेष रह जाती है। तब मनन करने को कुछ भी नहीं बचतासिर्फ कोरा दर्पण होता हैजस्ट मिरर। मन जब कोरा दर्पण रह जाता हैजिसमें कोई प्रतिबिंब,कोई प्रतिमाकोई चित्रकोई छबिकोई छाया नहीं पड़ती—उपनषिद कहते हैं—ऐसे मन से ही कोई परमेश्वर को जानने में समर्थ होता है।
धर्म और नीति का यही भेद है। नीति शुभ मन को शुद्ध समझती हैऔर धर्म शून्य मन को शुद्ध समझता है। नैतिक होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं है। नास्तिक भी नैतिक हो सकता हैहोता है। अक्सर तो यह होता है,आस्तिक से ज्यादा नैतिक होता है। रूस में जितनी नैतिकता है उतनी भारत में नहीं। और रूस नास्तिक है! इतनी चोरी वहां नहीं है,। इतनी बेईमानी वहां नहीं है। वस्तुओं में इतनी मिलावट वहां नहीं है। इतनी धोखाधड़ीइतना ओछापन नहीं। नास्तिक नैतिक हो सकता है। सच तो यह है कि नास्तिक को नैतिक होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है,क्योंकि धार्मिक तो वह हो नहीं सकता। नास्तिक के लिए बुरे का छोड़ना और चले का पकड़नायह अंतिम बात है।
आस्तिक इतने से राजी नहीं है। आस्तिक की यात्रा और लंबी है। आस्तिक कहता है—बुरे को छोड़ दियाभले को पकड़ लियालेकिन पकड़ तो न छूटी। कल बुरा था हाथ मेंअब भला है हाथ में। कल जंजीरें लोहे की थींअब सोने की हैंलेकिन जंजीरें मौजूद हैं। कुछ भी बांधे नहींकुछ भी पकड़े नहींकोई पकड़ न रह जाए मन बिलकुल पकड़ से शून्य हो जाए।
धर्म अनीति के तो पार जाता ही हैनीति के भी पार जाता है। धार्मिक व्यक्ति का आचरण सिर्फ नैतिक नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति का आचरण वस्तुत: नीति—अनीति शून्य हो जाता है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति के आचरण को समझना बहुत कठिन है।
नैतिक व्यक्ति का आचरण हमें समझ में आता है। हमें पता हैक्या बुरा है और क्या भला है। जो भला करता हैवह हमें समझ में आता है। जो बुरा करता हैवह भी समझ में आता है। लेकिन संत भले और बुरे करने के दोनों के पार हो जाता है। उसका आचरण स्पाटेनियससहज हो जाता है। उसके भीतर से जो उठता है वह करता है। न वह भले का चिंतन करता हैन बुरे का चिंतन करता है।
तो कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम भला कहते थेवह संत न करे। कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जो समाज की धारणा में बुरा थावह संत करे। जैसे जीससया कबीरया बुद्धया महावीर समाज की धारणाओं से बहुत अतिक्रमण कर जाते हैं।
महावीर नग्न खड़े हो गए! समाज की धारणा में नग्न खड़े हो जाना अशिष्टता हैअनैतिकता है। समाज नग्न लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा। उसके कारण हैं। क्योंकि समाज ने शरीर को ही नहीं ढाका हैशरीर के साथ उसने कामवासना को भी ढाका है। कामवासना से इतना भय है कि उसे छिपाकर रखना पड़ता है। नग्न आदमी की कामवासना प्रगट हो जाती है। नग्न आदमी का शरीर कामवासना की दृष्टि से ढंका हुआ नहीं है। तो समाज नग्नता को पसंद नहीं करेगा। वह मानेगा कि उसमें अनीति है।
महावीर नग्न खड़े हो गए। बड़ी अड़चन हो गई। गांव—गांव से महावीर को हटाया गया। जगह—जगह उन पर पत्थर फेंके गए। जगह—जगह उनकी निंदा की गई। और महावीर मौन भी थे। नग्न भी थेमौन भी थेबोलते भी नहीं थे। जवाब भी नहीं देते थे कि क्यों नग्न हैं न: क्यों खड़े हैं यहांक्या प्रयोजन हैतो और भी बेक हो गए थे।
लेकिन महावीर की नग्नता अनैतिक नहीं है। महावीर की नग्नता को नैतिक कहना भी मुश्किल है। महावीर की नग्नता बड़ी साहजिक हैछोटे बच्चे की भांति निर्दोष है। वहां नीति और अनीति दोनों नहीं हैं। महावीर वैसे सरल हो गए हैंजहां ढांकने को कुछ भी नहीं बचा है। जिसके पास ढांकने को कुछ बचा हैवह जटिल है। जो चाहता है कुछ छिपाए उसमें थोड़ी—सी जटिलता है। महावीर सरल हो गए हैं। उस सरलता में इतनी सीमा आ गई हैजहां वस्त्रों को ढोने का उन्हें कोई आकर्षण नहीं रहा है। लेकिन महावीर की नग्नता को सामान्य समाज अनैतिक समझेगा। महावीर के संतत्व को समझने में बड़ी जटिलता है। 
जीसस एक गांव से गुजरे और एक वेश्या ने आकर उनके पैरों पर सिर रख दिया और उसके आम बहने लगे। उसने अपने आसुओ से उनके पैर भिगो दिए। गांव के जो नैतिक पुरुष थेउन्होंने कहा कि वेश्या ठे द्वारा अपने को छूने देना उचित नहीं है। उन्होंने जीसस से कहा कि इस वेश्या को कहो कि तुम्हें न छुए। संत को तो साधारण स्त्री का स्पर्श भी वर्जित हैतो यह तो वेश्या है। जीसस ने कहा कि मेरे चरण अब तक।rजंतने लोगों ने छुए हैंइतनी पवित्रता से किसी ने कभी नहीं छुए। लोगों ने जल से मेरे पैर धोए हैंइस स्त्री ने मेरे पैरों को अपने प्राणों के आसुओ से धोया है।
जीसस पर जो जुर्म थेजिनकी वजह से उन्हें सूली लगीउसमें एक जुर्म यह भी था। साधारण उनके समाज की जो नीति की धारणा थीउसके विपरीत थी यह बात।
एक स्त्री को जीसस के पास लोग लाएक्योंकि वह व्यभिचारिणी थीऔर यहूदी कानून था कि जो स्त्री व्यभिचार करेउसे पत्थरों से मारकर मार डालना न्यायसंगत है। तो जीसस गांव के बाहर ठहरे थे। लोगों ने उनसे आकर कहा कि यह स्त्री व्यभिचारिणी है। और इसके पक्के प्रमाण मिल गए हैं। न केवल प्रमाणबल्कि इस स्त्री ने भी स्वीकार कर लिया है। इसलिए अब कोई सवाल नहीं है। और पुरानी किताब कहती है कि इस स्त्री को पत्थरों से मारकर मार डालना उचित हैन्यायसंगत है। आप क्या कहते है?
जीसस ने कहापुरानी किताब ठीक कहती है। लेकिन वे ही लोग पत्थर मारने के अधिकारी हैंजिन्होंने व्यभिचार न तो किया हो और न सोचा हो। तुम पत्थर उठाओ। तो व्यभिचारकौन है जिसने नहीं कियाया नहीं सोचा 2: वे जो समाज के बड़े पंडित और मुखिया थेपंच थेवे चुपचाप भीड़ में पीछे हटने लगे। धीरे—धीरे लोग जो पत्थर लेकर आए थेवे पत्थर छोड्कर गांव की तरफ भाग गए। जीसस पर यह भी एक जुर्म था कि उन्होंने एक व्यभिचारिणी स्त्री को बचा लिया।
जीसस का व्यवहार नीति के सामान्य दायरे में नहीं बंधता है। साहजिक है। जो सहज उनकी चेतना में उठ रहा हैवह कर रहे हैं। वे न तो सोचेंगे कि समाज की धारणा से मेल खाता है कि नहीं मेल खाता। वह विचार नैतिक व्यक्ति करता है।
धार्मिक व्यक्ति बड़ी अनूठी घटना है। इसका यह मतलब नहीं है कि धार्मिक व्यक्ति अनिवार्य रूप से अनैतिक हो जाता है। उसका आचरण नीति और अनीति से मुक्त होता है। कभी नीति से मेल भी खा जाता हैकभी मेल नहीं भी खाता। लेकिन यह उसके मन में अभिप्राय नहीं है कि मेल खाए या मेल न खाए। क्योंकि जब तक हम सोचते हैं : किसी धारणा से मेरा आचरण मेल खाए तब तक हमारा आचरण असत्य होगातब तक हमारा आचरण पाखंड होगा;तब तक आचरण भीतर से नहीं आ रहा हैबाहर के मापदंडों से तौला जा रहा है। तब तक आचरण आत्मा की अभिव्यक्ति नहीं है। तब तक आचरण समाज का अनुसरण है।
नैतिक व्यक्ति समाज का अनुसरण करता है। इसलिए जिनको आप साधु कहते हैंआमतौर से नैतिक होते हैं,धार्मिक नहीं। और जब भी कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाता हैतब आपको अड़चन शुरू हो जाती है। क्योंकि तत्‍क्षण उसके आचरण को आप अपने ढांचों में नहीं बिठा पाते। आपके जो पैटर्न हैंसोचने के जो ढाचे हैंवह उनसे ज्यादा बड़ा है। सब ढांचे टूट जाते हैं।
शुद्ध मन उपनिषद कहता है उस मन कोजहां नीति और अनीति की सारी तरंगें खो गई हैंजहां मन बिलकुल सूना हो गयाशून्य हो गयाजहा कोई विजातीय तत्व न रहा। विचार विजातीय तत्व है।
पानी में कोई दूध मिला देता हैतो हम कहते हैंदूध शुद्ध नहीं है। लेकिन बड़े मजे की बात हैअगर शुद्ध पानी मिलाया हो तोतो दूध शुद्ध है या नहींतो भी दूध अशुद्ध है। बिलकुल शुद्ध दूध और शुद्ध पानी मिलाया होतो दो शुद्धताएं मिलकर भी दूध अशुद्ध होगा।
अशुद्धि का संबंध इससे नहीं है कि जो मिलाया आपने वह शुद्ध था या नहीं। अशुद्धि का संबंध इससे है कि जो मिलाया वह विजातीय हैफारेन एलीमेंट है। वह दूध नहीं हैजो मिलाया आपनेवह पानी है। वह शुद्ध होगा। विजातीय तत्व का प्रवेश अशुद्धि है।
मन में मन के बाहर से कुछ भी आ जाए तो अशुद्धि है। वह शुद्ध विचार आयाअशुद्ध विचार आयाइससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर से कुछ भी मन में आयाअशुद्धि हो गई। मन में बाहर से कुछ भी न आएमन अकेला होअपने में होतो शुद्ध है। शुद्धि की यह बात ठीक से खयाल में ले लेनी जरूरी है।
और इसीलिए पश्चिम में जब पहली दफा उपनिषदों पर टीकाएं लिखी गईं और उपनिषद के अनुवाद हुएतो पश्चिम के विचारकों ने कहा कि उपनिषद जो हैंवे मारलनैतिक नहीं मालूम होते। डघूसन ने अपने प्रसिद्ध अनुवाद में यह शंका जाहिर की है कि उपनिषदों में कोई नैतिक शिक्षा नहीं है। जैसा बाइबिल में है कि चोरी मत करोबेईमानी मत करोपर —स्त्रीगमन मत करोऐसी साफ—साफ कोई नैतिक शिक्षा उपनिषद में नहीं है। डघूसन की शंका ठीक है,लेकिन डघूसन की व्याख्या ठीक नहीं है। डघूसन बिलकुल ठीक कह रहा है कि जैसा पुराने बाइबिल में सीधे उपदेश हैं,टेन कमांडमेंट्स हैंदस आशाएं हैं—ऐसा करोऐसा मत करो—ऐसा उपनिषद में कुछ भी नहीं है।
उपनिषद असल में करने की बात ही नहीं करता। उपनिषद कहता हैऐसे हो जाओ। करना गौण हैकृत्य गौण हैहोना वास्तविक है। उपनिषद यह नहीं कहता कि तुम अच्छा करोबुरा मत करो। उपनिषद कहता है तुम परमेश्वरमय हो जाओ फिर तुमसे अच्छा होगा। लेकिन वह तुम्हारी चिंता नहीं होगी। फिर तुमसे बुरा नहीं होगा। लेकिन वह तुम्हें रोकना नहीं पड़ेगा।
उपनिषद की धारणा यह है—जब तक बुरे को मुझे रोकना पड़ेतब तक वह मुझमें है। जब तक अच्छे को मुझे चेष्टा से करना पड़ेतब तक वह मेरी वास्तविक संपदा नहीं है। तब तक सब झूठ हैपाखंड हैऊपर—ऊपर हैतब तक मेरे भीतर कोई ज्योति नहीं जगी है।
इसलिए उपनिषद कहता है तुम्हारा बीइंगतुम्हारा अस्तित्वतुम्हारी आत्मा रूपांतरित हो जाएतो तुम्हारा आचरण उसके पीछे आ ही जाएगा। उसकी तुम चिंता मत करो। जैसे व्यक्ति के पीछे उसकी छाया आती है और हमें लौट—लौटकर नहीं देखना पड़ता कि छाया आ रही है या नहीं आ रही हैऔर हमें छाया को सम्हालना भी नहीं पड़ता,और छाया के लिए कोई इंतजाम भी नहीं करना पड़ता। छाया पीछे आती हैठीक वैसे ही आचरण भी पीछे आता है।
तुम्हारी आत्मा जैसी होती हैवैसा ही आचरण तुम्हारे पीछे आता है। इसलिए आचरण को बदलो या आत्मा को?साधारण धर्मग्रंथ कहते हैंआचरण को बदलो। असाधारण धर्मग्रंथ कहते हैंआत्मा को बदलो। साधारण धर्मग्रंथ साधारण आदमी की पकड़ के खयाल से लिखे गए हैं। असाधारण धर्मग्रंथ मनुष्य की आत्यंतिक संभावना की दृष्टि से लिखे गए हैं। उपनिषद असाधारण धर्मग्रंथ हैं। आखिरी बात हैजिसके ऊपर और कोई बात नहीं हो सकती।
शुद्ध मन से ही यह परमात्मतत्व प्राप्त किए जाने योग्य है। इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है।
जैसे ही मन शुद्ध होगावैसे ही जगत में एक दिखाई पड़ने लगेगा। मन की अशुद्धि के कारण जगत अनेक में टूटा हुआ दिखाई पड़ता हैक्योंकि जितना मन अशुद्ध होता हैउतना मन खंड—खंड होता है। ऐसा समझेंएक दर्पण हैउसको हम पचास टुकड़ों में तोड़ दें। तो जहां एक प्रतिबिंब बनता था पहलेअब पचास प्रतिबिंब बनेंगे। जो दर्पण पहले एक की खबर देता थावह अब पचास की देगा। पांच सौ दून्कड़ों मे तोड़ देंतो पांच सौ प्रतिबिंब बनेंगे। क्योंकि हर टुकड़ा एक दर्पण हो गया।
आप शायद कभी किसी ऐसे भवन में गए होंजहा बहुत से दर्पण के टुकड़े दीवार पर लगे होंतो आप अगर बीच में खड़े हो जाएंतो लाखों प्रतिबिंब दिखाई पड़ेंगे। अगर दर्पण एक होतातो एक प्रतिबिंब बनता। अगर लाखों टुकड़े लगे हैंतो लाखों प्रतिबिंब बनेंगे।
मन जितना अशुद्ध होगाउतने टुकड़ों में बंट जाता है। अशुद्ध मन खंडित होता है। उस खंडित मन।। जगत अनेक की तरह दिखाई पड़ता है। जब मन शुद्ध होता है और एक दर्पण रह जाता हैतो जगत भी एक अस्तित्व की तरह दिखाई पड़ता है।
एक परमात्मा कोई विचार नहीं है। एक प्ररमात्मा एक हो गए मन की अनुभूति है। इसलिए सवाल।। रमात्मा को खोजने का बिलकुल नहीं है। और जो लोग भी परमात्मा को खोजते हैंवे गलत यात्रा करते है। असली सवाल मन की एकता को खोजने का है। लोग कहते हैंपरमात्मा कहां हैयह बात ही फिजूल है। यह पूछनी ही नहीं चाहिए। इतना ही पूछना चाहिए कि मेरा टूटा हुआ खंडित मन अखंड कैसे हो जाए? एक कैसे हो जाएक्योंकि जब भी मन एक हो जाता हैउस एक की झलक बननी शुरू हो जाती है। जैसा होगा मन—टूटा हुआ खंडितया अखंड और एक—वैसी ही प्रतीति अस्तित्व की होगी।
मन एक दर्पण हैजिसमें हम देखते हैं अस्तित्व को। अगर अस्तित्व टुकड़े—टुकड़े में दिखाई पड़ता हैतो जानना कि आपका मन टूटा हुआ है—डिसइंटिग्रेटेड। और जब तक यह मन इंटिग्रेटेड न हो जाएइकट्ठा न हो जाएतब तक यह जगत टूटा ही रहेगा।
इसलिए असली सवाल परमात्मा की खोज का नहीं है। असली सवाल एक शुद्ध मन की खोज का है। शुद्ध मन से यह परमात्मतत्व प्राप्त किए जाने योग्य है। इस जगत में एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है।
एक ही है केवल और यह एक की प्रतीति सिर्फ धार्मिक अनुभूति की ही प्रतीति नहीं हैविज्ञान की भी आत्यंतिक प्रतीति यही है। क्योंकि विज्ञान की अगर हम पांच हजार वर्ष की यात्रा देखेंतो पांच हजार साल  पुराने वैज्ञानिकों ने कहा थापांच तत्व हैं। अभी भी हम पुराने उस पांच हजार वर्ष की धारणा कोभारत में तो हमारी भाषा में प्रविष्ट हो गई है—पंच तत्वयह देह पंच तत्व से बनी हैयह जगत पंच तत्वों से बना। यह कोई पांच हजार साल के वैज्ञानिक की खोज थीपहले कीकि पांच तत्व हैं। फिर जैसे — जैसे विज्ञानिक विश्लेषण की विधियां सूक्ष्म और तीक्ष्ण हुईंवैसे—वैसे और तत्वों की खोज हुई।
जिनको हमने तत्व कहा थाआज का विज्ञान उनको तत्व मानता ही नहीं। जल कोई तत्व नहीं हैक्‍योंकि कि जल आक्सीजन और हाइड्रोजन से मिलकर बना हैवह संयोग है। आक्सीजन और हाइड्रोजन तत्व है। (से विज्ञान खोजते—खोजते अट्ठानबे तत्वों पर पहुंचा। अट्ठानबे तत्व हैंउनमें आपके पांच तत्व कोई भी नहीं न तो पृथ्वी कोई तत्व हैन जल कोई तत्व हैन वायु कोई तत्व हैन अग्नि कोई तत्व है। ये कोई भी तत्व नहीं हैं। ये सभी संयोग सिद्ध हुए।
त्नेकिन पाच हजार साल पहले हुमारे पास जांचने का कोई उपाय नहीं था। तो जल तत्व थाक्योंकि जल को तोड़ने की हमारे पास कोई विधि नहीं थी कि हम तोड़कर देख लें कि जल कंपाउंड है या एलिमेंट है। का मतलब होता हैजो किसी से जुड़कर नहीं बनाजो स्वयं है। तो जल एक तत्व सिद्ध नहीं हुआ। फिर अट्ठानबे तत्व हो गएफिर बढ़ते—बढ़ते एक सौ बारह तत्व हो गए। और ऐसा लगा कि विज्ञान के तत्वों की संख्या तो बढ़ती चली जा रही है।
लेकिन फिर अचानक इन पिछले बीस वर्षों मेंएक सौ बारह तत्व खो गए और एक तत्व रह गया। क्योंकि हर तत्व के पीछे और भी खोज की गई। पहले जल तोड़ा गया तो आक्सीजन और हाइड्रोजन हाथ में लगे। फिर आक्सीजन भी तोड़ ली गई तो इलेक्ट्रिसिटी हाथ में लगी। हाइड्रोजन भी तोड़ ली गई तो इलेक्ट्रिसिटी हाथ में लगी। फिर सब चीजें तोड़कर देख ली गईं तो अंत में विद्युत हाथ में लगी। और अब विज्ञान कहता हैसारा जगत एक इलेक्ट्रिसिटीएक विद्युत का जाल है। सब उसका ही खेलसब उसका ही रूप है।
विज्ञान पदार्थ के माध्यम से एक पर पहुंच गयाधर्म चैतन्य के माध्यम से एक पर पहुंचा। इसलिए विज्ञान कहेगाविद्युत। और धर्म कहेगापरमात्मा। दोनों की यात्राएं अलग—अलग हैंलेकिन निष्पत्तिबड़ी करीब आ गई। एक बात पर दोनों राजी हैं कि सब एक का ही विस्तार है।
लेकिन विज्ञान की प्रतीति में कोई जीवन का रूपांतरण नहीं है। तत्व एक सौ बारह होंपांच होंकि एक हो,विज्ञान के माध्यम से आप में कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सौ बारह होंतो आप जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। पांच होंतो जैसे हैं वैसे रहेंगे। एक होतो जैसे हैं वैसे रहेंगे।
लेकिन धर्म की जो प्रक्रिया है उस एक को जानने कीउसमें आप पूरी तरह रूपांतरित हो जाते हैं। उस एक की तरफ पहुंचने में आपको अपना मन बदलना पड़ता है। वैज्ञानिक को कुछ भी नहीं बदलना पड़तावह सिर्फ साधनों के द्वारा प्रयोग करता रहता हैखुद अछूता रह जाता है। धार्मिक व्यक्ति की प्रयोगशाला वह स्वयं हैउसे कुछ और नहीं बदलना पड़ताखुद को ही बदलना पड़ता है। और जैसे—जैसे वह बदलता हैवैसे—वैसे एक के करीब आता है। जब वह पूरी तरह शुद्ध हो जाता हैतो एक का फैलाव रह जाता है।
इसलिए विज्ञान किसी आनंद पर नहीं पहुंचाता। बड़े से बड़ा वैज्ञानिक उतना ही दुखी होता हैजितना कोई गांव का गंवार। शायद गांव का गंवार कम दुखी होक्योंकि दुख के लिए भी थोड़ी समझदारी चाहिए। दुखी होने के लिए भी जरा बुद्धिमत्ता चाहिए। लेकिन वैज्ञानिक स्वयं के भीतर कोई रूपांतरण नहीं कर पाता। धार्मिक रूपांतरण न करेतो एक को उपलब्ध ही नहीं होता।
विज्ञान है पदार्थ के साथ श्रमऔर धर्म है स्वयं के साथ श्रम। जैसे ही मन शुद्ध होता हैएक के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह जाता। और जो इस जगत को अनेक की भांति देखता हैवह फिर—फिर जन्मता हैफिर—फिर मरता है।
हमारे जन्म और मरण का एक ही कारण है और वह कारण यह है कि हम उस महासागर को नहीं देख पाते,जो हम हैं। हम अपने को छोटे—छोटे झरनों की तरह देखते रहते हैं। झरने बनेंगेमिटेंगेफिर बनेंगेफिर मिटेंगे। सागर सदा है।
आपने अपने को जैसा जाना हैवैसी ही आपकी परिणति हो जाएगी। अगर आप समझते हैं कि एक छोटा झरना हैंतो गरमी आएगीसूखेंगेभाप बनेंगेउड़ेंगे। फिर वर्षा आएगीफिर बरसेंगेफिर झरना बनेगाफिर फूटेंगेफिर बहेंगेफिर गर्मी। बस बनते और मिटते रहेंगे। जन्म—मरण का इतना ही अर्थ है।
लेकिन अगर आप अपने को महासागर की तरह देख लेंतो वह सदा है। न मिटता हैन बनता। न छोटा होता,न बड़ा होता। न उसमें कभी कोई पूर आता और न कभी कोई कमी पड़ती। वह जैसा हैवैसा है। फिर भी हमारे सागर तो बहुत छोटे हैं। चेतना का सागर तो अनंत है। उसमें कुछ कम नहीं होताकुछ ज्‍यादा नहीं होता।
इसलिए उपनिषदों ने कहा हैउस पूर्ण में से पूर्ण को भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रहता है। उसमें से हम कितना ही निकाल लें तो भी रत्तीभर कम नहीं होता। और उसमें हम पूर्ण भी जोड़ दें तो भी कुछ जड़ता नहीं। क्योंकि अनंत का अर्थ ही होता है : जिसमें से कुछ घटाओकुछ जोड़ोकोई फर्क नहीं पड़ता।। कुछ जोड़ा जा सकता है,न कुछ घटाया जा सकता है।
जिस व्यक्ति ने उस महासागर की तरह अपने को देख लिया..।
तो दो कदम हुए। एक कदम है : मन का शुद्ध हो जाना। मन के शुद्ध होते ही उस एक का दर्शन होता हे। लेकिन अभी खयाल रखेंउस एक के दर्शन में अभी दो की मौजूदगी है। एक तो वह जिसका दर्शन हो रहा हैऔर एक आप जिसको दर्शन हो रहा है। पहला कदम यह है कि मन शुद्ध हो जाए। मन के शुद्ध होने पर एक का दर्शन होगा। लेकिन एक के दर्शन का मतलब ही यह है कि अभी दूसरा मौजूद है। देखने गला मौजूद हैदर्शन करने वाला मौजूद है। दो हैं।
दूसरा कदम यह है कि वह जो शुद्ध मन थावह भी खो जाए। उसकी भी कोई जरूरत नहीं है। दर्पण गि टूट जाएनष्ट ही हो जाएबचे ही नहींतो दर्पण जो फासला कर रहा था दो कावह भी विदा हो जाए। तब एक ही रह जाएगा। लेकिन उस एक का तो पता भी नहीं चलेगा कि एक है। इसलिए उस एक को हमने दृ स देश में अद्वैत कहा है। क्योंकि एक कहने से ठीक नहीं मालूम होगा। बस इतना ही कहा है कि वह दो नहीं है। क्योंकि एक कहने से शक पैदा होता है कि जानने वाला कोई होगा। एक हमने कहा कि दो हो जाता है। एक का मतलब ही यह है कि गिनती आ गई।
अद्वैत का मतलब हैहम गिनती का इनकार कर रहे हैं। हम कह रहे हैंउसकी कोई गिनती नहीं। वह दो नहीं है। बस इतना साफ है। वह क्या हैयह हम नहीं कह रहे हैं। वह क्या नहीं हैयह हम कह रहे हैं। और यह समझ लेने जैसा है कि परमात्मा के संबंध में कोई पाजिटिव स्टेटमेंटकोई विधायक वक्तव्‍य सही नहीं हो सकता। उसके संबंध में सिर्फ निगेटिव स्टेटमेंटसिर्फ नकारात्मक वक्तव्यनेति—नेति सत्य हो सकता है। हम इतना ही कह सकते हैं कि वह क्या नहीं है। हम यह नहीं कह सकते कि वह क्या हैक्‍योंकि वह इतना बड़ा है कि उसे कोई शब्द प्रगट न कर पाएगा। पर यह हम जरूर कह सकते हैं कि वह मग नहीं है। क्या नहीं हैयह कहा जा सकता है। तो हम कहते हैंवह दो नहीं है। हम कहते हैंवह दुख  न हीं है।
बृद्ध से कोई पूछता था कि तुम्हारे उस महापरिनिर्वाण में आनंद होगातो बुद्ध कहते थेयह मैं नहीं जानता। इतना ही मैं कह सकता हूं वहां दुख नहीं हैदुख—निरोध है। हम निषेध कर सकते हैं। हम यह नहीं कह सकते कि वह प्रकाश है। हम इतना ही कह सकते हैंवहां कोई अंधकार नहीं है।
यह जो निषेध की बात हैयह बहुत मौलिक हैबहुत आधारभूत है। विराट को जब भी बताना हो तो भाप रोसा नहीं बता सकते कि यह रहा। क्योंकि अगर विराट को आप ऐसा इशारा करके बताएंगेवह क्षुद्र हो जाएगा। जिसके प्रति इशारा किया जा सकता हैवह क्षुद्र हो जाएगा।
अगर मैं कहूं कि यह रहा परमात्माअंगुली का इशारा करूंतो सीमा हो जाएगी। जिसको मेरी अंगुली बता सकती हैवह विराट नहीं हो सकता। परमात्मा को बताना हो तो मुट्ठी बांधकर बताना पड़ेगा कि यह रहा। कोई इशारा नहीं किया जा सकता।
सब इशारे सिर्फ समझ के लिए थोड़ा—सा सहारा हैं। वे सहारे वैसे ही हैं जैसे लंगड़ा आदमी बैसाखी का सहारा लेकर चलता है। बैसाखी कोई पैर नहीं है। और लंगड़ा सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा है कि जब पैर ठीक हो जाएंगे तो बैसाखी को फेंक देगा।
सारे शब्द जो परमात्मा के संबंध में कहे जा सकते हैं—बैसाखिया हैंसत्य नहीं हैं। और जैसे ही आपको अनुभव होगाइन शब्दों को फेंक देना होगाजैसे लंगड़ा बैसाखियों को फेंक देता है। फिर उनका कोई प्रयोजन नहींउनको ढोना फिर नासमझी है।
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष परमात्मा शरीर के मध्यभाग हृदयाकाश में स्थित है जो कि भूत वर्तमान और भविष्य का शासन करने वाला है उसे जान लेने के बाद व्यक्ति किसी की भी निंदा नहीं करता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।
यह थोड़ा विवादग्रस्त सिद्धात है। लंबा विवाद रहा है कि आत्मा का आकार क्या हैशरीर में उसका स्थान कहा हैउपनिषद मानते हैं कि अंगूठे के बराबरअंगुष्ठमात्रउसका आकार है। और शरीर के मध्यभाग में हृदयाकाश में वह स्थित है।
जैनों की धारणा है कि यह बात अजीब हैअंगुष्ठमात्र! आत्माऔर अंगूठे के बराबर! जैनों की धारणा है कि आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त है और शरीर के आकार की है।
लेकिन उसमें भी बड़ी झंझटें हैं। क्योंकि चींटी मरकर हाथी हो सकती है। तो जब चींटी मरकर हाथी होगीतो चींटी के शरीर में आत्मा चींटी के बराबर थीफिर हाथी के शरीर में हाथी के बराबर हो गई! तो जैनों को एक धारणा विकसित करनी पड़ी है कि आत्मा लोचपूर्ण हैफैलती—सिकुड़ती है। जितने बड़े शरीर में होती हैउतनी ही हो जाती है। जब हाथी के शरीर में होती है तो हाथी के बराबर हो जाती हैफैल जाती है। और जब चींटी के शरीर में होती है तो सिकुड़ जाती है।
लेकिन उपनिषद पूछते हैं कि आत्मा क्या कोई वस्तु है जो सिकुड़ सकतीफैल सकती हैकोई पदार्थ है?लेकिन जैन दार्शनिक भी पूछते हैं कि अगर फैलने—सिकुड़ने की संभावना नहीं हैतो तुम अंगुष्ठमात्र कहते होतो आत्मा क्या कोई पदार्थ हैजो अंगूठे के बराबर हो सकती हैफिर चींटी का क्या होगाअगुष्ठमात्र आत्मा चींटी में कैसे प्रवेश करेगीबड़ा मुश्किल हो जाएगा। चींटी आत्मा के भीतर होगीआत्मा चींटी के भीतर नहीं होगी।
इस पर कोई हजारों वर्ष से विवाद है। और उस विवाद में कोई अंत नहीं आ सकाक्योंकि विवाद की मूल—भित्तियां ही गलत हैं। इसे विज्ञान की भाषा से थोड़ा समझें तो आसानी हो जाएगी।
एक दीया जल रहा है। दीए की लौ छोटी—सी हैलेकिन प्रकाश पूरे कमरे को भर देता है। कमरा जितना बड़ा हो,छोटा होदीवालें जितनी होंप्रकाश उतना ही हो जाता है। दीया छोटा—सा कमरे में जल रहा हैलेकिन प्रकाश की सीमा कमरे से तय होती है। दीया तो जल रहा है। उपनिषदों की यह धारणा कि अंगुष्ठमात्र हैअसल में दीए की ज्योति की धारणा है। दीए की ज्योति की भांतिअंगूठे के बराबर दीए की ज्योति। प्रकाश पूरे शरीर में भर जाता है। शरीर जितना बड़ा होछोटा होइससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
दीए की ज्योति की भांति। दीए की ज्योति छोटी भी हो सकती हैबड़ी भी हो सकती है। यह जो अंगुष्ठमात्र आत्मा कही हैयह मनुष्य के लिए कही है। चींटी का दीया छोटा है। उसकी ज्योति भी छोटी होगी। हाथी का दीया बड़ा हैउसकी ज्योति भी बड़ी होगी। लेकिन प्रकाश का गुण एक है—वह छोटी ज्योति होकि बड़ी ज्योति होकि महासूर्य हो—प्रकाश के गुण में कोई भेद नहीं पड़ता। और शरीर की दीवालें कितनी हैंकक्ष कितना बड़ा हैउतने को प्रकाश से भर देगी।
दीए की ज्योति के आधार पर अंगूठे के बराबर आत्मा की धारणा है।
आपके पूरे शरीर को प्रकाश से भरा हुआ है। आपकी अंगुलियों तक आत्मा नहीं आई हैसिर्फ आत्मा का प्रकाश आया है। उतना प्रकाश भी आपके शरीर को जीवित करने के लिए काफी है। उतनी ही ऊर्जा से आप जीवित हैं। मरते हुए आदमी का प्रकाश धीमा पड़ने लगता है। शरीर शिथिल होने लगता है। दीए की ज्योति इस घर को छोड़ने के लिए तैयार होने लगती है।
दूसरी बातयह जो हृदयाकाश में अंगुष्ठमात्र आत्मा की बात उपनिषदों ने कही हैइसको शाब्दिक अर्थों में लेना उचित नहीं है। और इसके साथ शाब्दिक—व्यवहार करना भी उचित नहीं। ये केवल इशारे हैं। इसका ठीक मतलब अंगूठे के बराबर नहीं होता। केवल इशारा है।
इस शरीर में ठीक हृदय के मध्य में आत्मा का संस्पर्श है। उपनिषद की धारणा यह है कि आत्मा तो सब जगह व्याप्त हैपरमात्मा सबको घेरे हुए है। लेकिन परमात्मा सबको घेरे हुए हैपर आपके भीतर परमात्मा का जो काटैक्ट,संपर्क—स्थल हैवह हृदय के मध्य में छोटी—सी जगह है। वहा से परमात्मा से आप जुड़े हैं। वहां से प्लग्ड हैं।
आपने बल्व लगाया हैएक छोटी—सी जगह में बल्व लग गया है। बिजली की बड़ी धारा पीछे है। आप पाच कैंडल का बल्व लगाए हैं तो पांच कैंडल का प्रकाश मिल रहा है। पचास कैंडल का लगाए हैं तो पचास कैंडल कापांच हजार कैंडल का लगाए हैं तो पांच हजार कैंडल का प्रकाश मिल रहा है। पीछे अनंत धारा है। लेकिन आपके बल्व की जितनी क्षमता हैउतना प्रकाश आपका बल्व ले रहा है।
हम सब की आत्माएं तो समान हैंक्योंकि हम सब परमात्मा से जुड़े हुए हैं। हमारे भीतर परमात्मा का जो जोड हैउसका नाम आत्मा है। फिर जितनी हमारी क्षमता हैजितनी हमारी कैंडल की क्षमता हैउतना ज्यादा प्रकाश हम उस परमात्मा के स्रोत से ले लेते हैं। कोई पांच कैंडल का है। बुद्ध जैसा कोई पांच हजार कैंडल का हैतो वह पाच हजार कैंडल का प्रकाश अपने चारों तरफ फेंक पाता है।
लेकिन. हम जुड़े हैं महास्रोत से। चींटी बहुत थोड़ा—सा कैंडल ले रही हैआदमी थोड़ा ज्यादा ले रहा हैबुद्ध बहुत ज्यादा ले रहे हैं। लेकिन महास्रोत समान है।
आपके भीतर उस महास्रोत का जो संपर्क—स्थल हैउपनिषद उसकी बात कर रहे हैंकि वह अंगूठे की तरह छोटी—सी जगह है भीतरजहां से आप परमात्मा से जुड़े हैं। और आप जितने शुद्ध होते चले जाएंगेउतने ही उस महास्रोत से ज्यादा शक्ति आपको उपलब्ध होती चली जाएगी। आपकी शुद्धता पर निर्भर होगा। अगर आप पूर्ण शुद्ध हो जाएं तो परमात्मा का महास्रोत आपसे प्रगट होने लगेगा।
हमने जिन पुरुषों को अवतार कहा हैतीर्थंकर कहा हैबुद्ध कहा हैवे वैसे लोग हैंजिन्होंने अपने को इतना शुद्ध कर लिया कि खुद बचे ही नहींतो उनके भीतर से महास्रोत प्रगट हो गया। तो फिर हमने उन्हें मनुष्य कहना उचित नहीं समझाफिर हमने ठीक समझा कि वे जिस महास्रोत के साथ एक हो गए हैंहम उन्हें उसी महास्रोत के नाम से स्मरण करें।
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष शरीर के मध्यभाग हृदयाकाश में स्थित है जो कि भूत वर्तमान और भविष्य का शासन करने वाला है। उसे जान लेने के बाद व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष परमात्मा धूम्ररहित ज्योति की भांति है। भूत वर्तमान और भविष्य पर शासन करने वाला वह परमात्मा आज है और वही कल भी है अर्थात वह नित्य सनातन है। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।
धुम्ररहित ज्योति! समझने जैसा है। आप जो भी ज्योति जलाते हैंवह कसहित होती हैउसमें धुआ होता है। धुआ क्यों होता है ज्योति मेंधुआ किस कारण होता हैज्योति का हाथ है धुएं मेंज्योति के स्वभाव में कुछ बात है जिससे धुआ हो?
नहीं। धुआ होता है ईंधन के कारण। ज्योति के स्वभाव से धुएं का कोई संबंध नहीं है। और जितना ईंधन गीला हो उतना ज्यादा धुआ होता है। ईंधन सूखा होधुआ कम होता है। गीली लकड़ी जलाएंधुआ ही धुआ होता हैज्योति पता नहीं चलती। सूखी लकड़ी जलाएंधुआ कम रह जाता हैज्योति पता चलती है। बिलकुल सूखी लकड़ी होतो धुआ करीब—करीब न के बराबर हो जाता है। इससे एक बात साफ है कि धुएं का संबंध ईधन से हैज्योति से नहीं।
इसका मतलब यह हुआ कि करहित ज्योति तो वही हो सकती है जो बिना ईंधन के हो। नहीं तो कोई भी ईंधन होगा तो किसी न किसी तरह का धुआ पैदा होगा। शुद्धतम ईंधनस्तिट भी जलाएंगेतो भी थोड़ा—सा धुआ पैदा होगा,चाहे दिखाई भी न पड़े आंख से। क्योंकि जब कोई चीज जलेगीतो वहां दो चीजें हो गईं—अग्नि और जलने वाली चीज। वह जो जलने वाली चीज हैवह धुआ पैदा करेगी।
धुआ है कार्बन डाई आक्साइड। और जब भी कोई चीज जलेगी तो कार्बन पैदा होगा। अगर हम कोई ऐसी ज्योति खोज लें जो ईधनरहित हो...।
पर बड़े मजे हैं। पिछले तीन सौ वर्षों मेंविज्ञान की जो बड़ी—बड़ी समितियां हैं—रायल सोसाइटी हैया फास की एकेडमी हैया अमेरिका का विज्ञान—मंडल हैया सोवियत रूस की साइंस एकेडमी है—इनके पास हर वर्ष सैकड़ों लोग दावा करते हैं कि हमने वह अग्नि खोज लीजो ईंधनरहित है। मगर वे सब दावे गलत होते हैं।
यह खोज बड़ी पुरानी है। और कुछ मुल्कों नेजैसे फ्रास ने और इंग्लैंड ने तो अब एक नियम बना दिया कि कोई भी आदमी इस तरह की खबर न देक्योंकि उससे व्यर्थ समय खराब होता है। सैकड़ों लोग पेटेंट के लिए एप्लाई करते हैं सारी दुनिया मेंकि हमने ईंधनरहित शक्ति खोज ली। यह खोज बड़ी पुरानी है। क्योंकि जिस दिन हम ईंधनरहित शक्ति खोज लेंगेउस दिन हम महान शक्ति खोज लेंगे। क्योंकि सब ईंधन चुक जाने वाले हैं। अगर हम जिस भांति पेट्रोल जला रहे हैं इसी भाति जलाते रहेतो वैज्ञानिक कहते हैंपांच हजार साल बाद पेट्रोल की एक बूंद भी नहीं होगी। और सब कुछ पेट्रोल पर निर्भर मालूम हो रहा है। पेट्रोल की एक सीमा है।
जिस भांति हमने जला—जलाकर लकड़ीजंगल नष्ट कर दिएअब हम रो रहे हैंक्योंकि वर्षा नहीं होती। कहीं कुछ दूसरा उपद्रव हैसॉइलइरोजन है। जमीन नष्ट हो रही है। पाकिस्तान में प्रति घंटे पांच हजार बच्चे पैदा हो रहे हैं और एक एकड़ जमीन नष्ट हो रही हैप्रति घंटे। बच्चे एक इंच जमीन तो साथ लेकर आते नहींऔर हर घंटे एक एकड़ जमीन सॉइलइरोजन में नष्ट होती जा रही हैक्योंकि जंगल कट गए हैं। वृक्ष अपनी जड़ों से जमीन को रोके रखते हैं। जब वृक्ष नहीं रह जातेतो जमीन पर पकड़ खो जाती हैतो जमीन बिखरने लगती है। अगर आप सब जंगल काट देंतो जमीन सब बिखरकर नष्ट हो जाएगी।
वृक्ष जमीन को पकड़े हुए हैं। वृक्ष ही जमीन से भोजन नहीं ले रहे हैंजमीन भी वृक्ष का सहारा ले रही है। और वृक्ष पूरे वक्त आकाश से तत्वों को खींचकर जमीन को दे रहे हैं। वृक्ष हट जाते हैंजमीन बंजर हो जाती हैबांझ हो जाती है।
तो बड़ी खोज है कि कोई ऐसा तत्व मिल जाए। क्योंकि जंगल कट गएअब लकड़ी नहीं बची। कोयला जमीन से निकाल—निकालकर हम खतम किए ले रहे हैं। पेट्रोल निकाल—निकालकर खतम किए ले रहे हैं। हमारे सब ईंधन किसी दिन खतम हो जाएंगेउस दिन आदमी को मरना पड़ेगा। क्योंकि आप सोच भी नहीं सकते कि जिस दिन पेट्रोल नहीं होगादुनिया की क्या हालत होगी। न हवाई जहाज चल सकतेन कार चल सकती! और हमारे मुल्क में तो अभी इतनी दिक्कत नहीं हैलेकिन रूस में या अमेरिका में कोई सोच ही नहीं सकता कि बिना कार के जीवन कैसे हो सकता है। असंभव है। बिना पेट्रोल के जीवन का कोई उपाय नहीं दिखता।
इसलिए कई झक्की लोग झूठे दावे कर देते हैं कि उन्होंने खोज लिया ईंधन। बहुत विचार करने के बाद कई सरकारों ने तय कर लिया कि अब इस तरह की कोई एप्लीकेशन स्वीकार नहीं की जाएगी। यह बात हो नहीं सकती कि ईंधनरहित अग्नि खोजी जा सके।
लेकिन उपनिषद कहते हैं कि आदमी के भीतर वह शक्ति चल रही हैजो ईधनरहित है। परमात्मा ईधनरहित अग्नि हैइसलिए निर्धूम है। धुआ उसमें पैदा नहीं होता।
आप कहेंगेजरा मुश्किल है यह बात समझना! और अगर मेडिकल साइंस से पूछेंतो वह भी राजी नहीं होगी। क्योंकि वह कहेगीआप भोजन से ईंधन ले रहे हैंइसलिए आप जीवित हैं। अगर भोजन बंद कर देंतो जीवन बंद हो जाएगा। श्वास से ईंधन ले रहे हैंआक्सीजन भीतर जा रही है। अगर आक्सीजन भीतर न जाए आप मर जाएंगे। सब तरह से आप ईंधन भीतर ले रहे हैं। तो यह जो भीतर की आत्मा हैइसको आप ईधनरहित ज्योति क्यों कहते हैं?
इस बात के लिए बड़ी खोज करनी जरूरी है। और कुछ ऐसे उदाहरण उपस्थित हुए इस सदी मेंपिछली सदियों में तो ऐसे बहुत उदाहरण थे ईंधनरहित लोगों के। लेकिन इस सदी में जरा मुश्किल हो गयालेकिन फिर भी कुछ आदमी इस तरह के रहे।
यूरोप में एक महिला थी न्यूमनजो तीस साल तक बिना भोजन के रहीऔर सारे चिकित्साशास्त्र को मुश्किल में डाल दिया। और उसका एक रत्तीभर वजन नहीं गिरा!
स्त्री बंगाल में थीजो उन्नीस सौ पचास में मरीजो चालीस साल तक बिना भोजन के रही। परिपूर्ण स्‍वस्थ। आम आदमी से ज्यादा स्वस्थ। कभी बीमार नहीं पड़ी। मरते दम तक युवकों जैसी शक्ति उसमें रही। और वजन उसका गिरा नहीं।
आकस्मिक घटना हुईउसका पति मरा और वह इतना दुखी हुई पति के प्रेम में कि उसने भोजन छोड़ दिया। लेकिन भोजन छोड़ने से वह मरी नहींबल्कि इसके पहले वह बीमार रहती थीभोजन छोडने के बाद उसकी बीमारियां भी खो गयीं। और एक चमत्कार घटित हुआ कि वह चालीस साल तक बिना भोजन के रही।
अभी पश्चिम में एक नया शास्त्र विकसित हो रहा हैजो सोचता है कि भोजन आदमी की आदत हैअवश्‍यकता नहीं। और भोजन के द्वारा आदमी को ईंधन नहीं मिलतासिर्फ एक आदत हैएक व्यसन। जैसा हम कहते हैं कि शराब पीना एक व्यसन हैसिगरेट पीना एक व्यसन है। ऐसा कुछ विचारक इस खोज में लगे हैंवे कहते हैंभोजन भी सिर्फ एक व्यसन हैजरूरत नहीं है उसकी। उसके बिना आदमी हो —सकता है।
जैन—शास्त्रों में यह कहा गया है कि उनके पहले तीर्थंकर ऋषभदेव के पैदा होने के पहले लोग बिना भोजन के जीते थे। यह कथा सच हो सकती है। और ऋषभदेव ने पहली दफे अन्न की ईजाद की। तो हमारे भोजन की आदत के वे शुरुआतपहले वैज्ञानिक हो सकते हैं। शायद लोग उस कला को मूलने लगे होंगे और भोजन खोजना पड़ा होगा। श्वास की कला पर निर्भर करता है कि आप क्या बिना भोजन के रह सकते हैं!
लेकिन तब भी एक बात बच रहती है कि ये दोनों महिलाएं श्वास तो लेती ही थीं। तो श्वास से भोजन मिल सकता है। वृक्ष को श्वास से ही भोजन मिल रहा है। कोई वजह नहींआदमी को क्यों न मिले। आप चकित होंगेआप सोचते होंगे कि वृक्ष में जो लकड़ी बन रही हैपत्ते बन रहे हैंफल आ रहे हैंये जमीन से खींचे जा रहे हैंतो आप बिलकुल गलती में हैं। ये सब आकाश से खींचे जा रहे हैं।
तो वनस्पतिशास्त्रियों ने पिछली सदी में बहुत प्रयोग किए और बड़े चकित हो गएक्योंकि सदा से यही माना जाता था कि वृक्ष जमीन को खींच रहे हैं। लेकिन एक वैशानिक ने एक पौधा लगाया गमले में। गमले की मिट्टी का पूरा माप रखा। फिर पौधा बड़ा होने लगा। और पौधा बहुत बड़ा वृक्ष हो गयातब पौधे को बिलकुल अलग कर लिया। पौधे को तौला। टनों उसका वजन था। लेकिन मिट्टी गमले में उतनी की उतनी थीउसमें रत्तीभर कमी नहीं हुई थी। यह वजन कहां से आयायह सब हवा से खींचा गयामिट्टी से नहीं खींचा गया। नहीं तो जमीन पर इतने वृक्ष हैं,अभी तक जमीन खाली हो गई होतीगड्डे ही गड्डे हो गए होते! जमीन उतनी की उतनी है। वृक्ष आकाश से खींच रहे हैं। सूर्य की किरणों से और वायु से सारा तत्व खींचा जा रहा है तो आदमी क्यों नहीं जी सकता?
और फिर आदमी वृक्षों के ही माध्यम से तो जीता है। उनके फल खाता हैअनाज खाता है। और वृक्ष आकाश से खींचकर फल बनाते हैंतो आदमी सीधा बिना वृक्ष के माध्यम के जी सकता है।
महावीर को जरूर ऐसी कोई कला आती होगी। क्योंकि बारह वर्ष में उन्होंने केवल तीन सौ साठ दिन भोजन लिया। कभी तीन महीनेकभी चार महीनेकभी पांच महीने.। और उनके शरीर कोउनकी प्रतिमाओं को देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे भूखे मर रहे होंगे। उनका शरीर बलिष्ठ है। बलिष्ठ से बलिष्ठ शरीर उनके पास है। जैन—मुनि चार महीने उपवास करते हैंतो हड्डी—हड्डी हो जाते हैंउन्हें महावीर की कला का कुछ पता नहीं है। महावीर जरूर कोई सूत्र जानते हैंजिससे वे श्वास से सीधा ईंधन ले रहे हैं।
ये दोनों महिलाएं इतना तो सिद्ध करती हैं कि बिना भोजन के आदमी जी सकता। लेकिन बिना श्वास के?बिना श्वास के जीने के प्रमाण भी हैं। और अभी—अभी कुछ प्रमाण बहुत अदभुत हुए।
अठारह सौ अस्सी में एक सूफी फकीर इजिप्त में समाधिस्थ हुआऔर उसने कहाचालीस साल बाद उन्नीस सौ बीस में मेरी समाधि को खोलना। जिन लोगों ने उसे समाधिस्थ किया थावे सब मर गए। सच तो यह है कि लोग करीब—करीब मूल चुके थे। चालीस साल! उन्नीस सौ बीस में अचानक किसी आदमी के हाथ में चालीस साल पुराना अखबार लग गया। और उसमें उसने खबर देखी कि एक आदमी आज समाधिस्थ हो रहा है और चालीस साल बाद खोदा जाने वाला है। तो उस आदमी ने फिक्र कीसरकार को लिखा—पढ़ी कीउस आदमी की कब खोदी गईजहां वह चालीस साल से गड़ा था। और उसे खोदा गयावह आदमी जिंदा वापस निकला। चालीस साल बिना श्वास के जीयाऔर निकलने के बाद वह एक साल जिंदा रहा।
भारत के बहुत से योगी तीन महीनेतीन सप्ताह इत्यादि के प्रयोग करते हैं। लेकिन तीन सप्ताह का प्रयोग बहुत सिद्ध नहीं करता। क्योंकि जिस गड्डे में उनको दबाया जाता हैउस गड्डे में इतनी आक्सीजन रहता हैजो तीन सप्ताह तक चल सकती है। मगर चालीस साल तक चलने वाली आक्सीजन छोटे से गद्वे में असंभव है।
बहुत से पशु हैंसाइबेरिया में रीछ होता हैभालू होता हैजब छह महीने साइबेरिया में रात होती है —क्योंकि छह महीने दिनऔर छह महीने रात होती है—तो जब छह महीने रात होती है और सब बर्फ जम जाती हैतो भालू सो जाता हैश्वास बंद कर लेता है। छह महीने तक वह श्वास बंद किए पड़ा रहता है। छह महीने बाद जब सुबह का सूरज उगता हैफिर दिन होता हैगर्मी बढ़ती हैबर्फ पिघलती हैभाल फिर से श्वास लेता है। छह महीने तक अगर भालू बिना श्वास के रह सकता है जीविततो आदमी क्यों नहीं रह सकता?
हमारे मुल्क में भी मेंढक बिना श्वास के जमीन में दब जाता है। वर्षा बंद हो जाती हैमेंढक जमीन में सो जाता हैश्वास बंद हो जाती हैसब प्रक्रियाएं बंद हो जाती हैंलेकिन वह मरता नहीं। वर्षा आती हैफिर से मेंढक जाग उठता है। यह लंबी नींद हैयह बिना श्वासं के हो सकती है।
आदमी के भीतरवस्तुत: समस्त जीवन के भीतर एक तत्व हैजो बिना ईंधन के चल रहा है। इस बिना ईंधन की ज्योति को उपनिषद कहते हैं—धूम्ररहित ज्योति।
अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष परमात्मा धूम्ररहित ज्योति की भांति है। भूत वर्तमान और भविष्य पर शासन करने वाला वह परमात्मा ही आज है वही कल भी है। वह नित्य सनातन है।
उसके मिटने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि जिसके जीवन का कोई कारण नहींउसकी मृत्यु का कोई कारण नहीं होता। जिसके लिए ईंधन कीभोजन की कोई जरूरत नहींजो अपने में पर्याप्त हैउसके मिटने का कोई उपाय नहीं। अगर आप किसी चीज पर निर्भर हैंतो मिटेंगे। क्योंकि जिस चीज पर निर्भर हैंअगर वह मिट जाएतो आपके बचने की संभावना नहीं।
परमात्मा स्वयंभू स्वयं परिपूर्णस्वयं आप्तशक्ति हैकिसी पर निर्भर नहीं है। इसलिए जगत चलता चला जाता है। अस्तित्व बहता चला जाता है। यह न कभी नष्ट होता हैन कभी पैदा होता है।
यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।
जिस प्रकार ऊंचे शिखर पर बरसा हुआ जल पहाड़ के नाना स्थलों में चारों ओर चला जाता है उसी प्रकार भिन्न— भिन्न धर्मों से युक्त देव असुर मनुष्य आदि को परमात्मा से पृथक देखकर उनका सेवन करने वाला मनुष्य उन्हीं के पीछे दौड़ता रहता है। अर्थात उन्हीं के शुभाशुभ लोकों में और नाना ऊंच— नीच योनियों में भटकता रहता है।
हे गौतमवशी नचिकेता! जैसे वर्षा का शुद्ध जल अन्य जलों में मिलकर वैसा ही हो जाता है उसी प्रकार परमेश्वर को जानने वाले संतजन की आत्मा परमेश्वरमय हो जाती है
अनेक और एकये दो दृष्टिया हैं। जिसको अनेक दिखाई पड़ते हैंवह अंधा हैउसके पास अंधे की दृष्टि है। जिसको एक दिखाई पड़ता हैवह आंख वाला हैउसकी आंख खुल गई। वह क्षुद्र दीवारों को नहीं देखतावह सब के भीतर व्याप्त एक तत्व को देखने लगता है।
यम कहता हैनचिकेता! ऐसा एक को जानने वाला व्यक्तिजैसे वर्षा का जल बह—बहकर सागर में एक हो जाता हैसागर जैसा ही हो जाता है। ऐसा एक को देखने वाला व्यक्ति बह—बहकर परमात्मा के सागर में एक हो जाता है।
हमारी पीड़ा यही है कि हमारा बहाव रुक गया है। हम जम गए हैंफ्रोजनअकडु गए हैं। जैसे कोई झरना बर्फ हो गया होवह बह नहीं सकतावह सागर तक जा नहीं सकता। गर्मी चाहिए कि वह पिघले। धूप चाहिए कि वह पिघले। एक मेल्टिंगएक पिघलने की जरूरत हैताकि वह बह सकेसागर की तरफ जा सके। हम सब अपने—अपने शरीरों में जम गए हैंबर्फ की तरह हो गए हैं। तपश्चर्यासाधना पिघलाने के उपाय हैं।
यहां हम जो प्रयोग कर रहे हैंउनकी सारी चेष्टा इतनी है कि आप थोड़े से पिघल जाएंतरल हो जाएंबहने लगेंफ्लो आ जाएप्रवाह पैदा हो जाए। सागर बहुत दूर नहीं है। लेकिन आप जमे रहेंतो बिलकुल सागर के किनारे पर भी पड़ी रहे बर्फ की चट्टान तो भी सागर से मिल नहीं सकती। पिघलेथोड़ा बहे। और यह अहंकार हमारा बहुत पथरीला है। यह पिघलने नहीं देता। यह रोकता है। यह कहता हैक्या कर रहे होमिटने जा रहे होसम्हालो अपने को। वह जो सम्हालेगावह जड़जमा हुआ रह जाएगा। 
ध्यान के प्रयोगों में अपने को पिघलाए। इसलिए मेरा इतना जोर है—नाचेकूदेछोटे बच्चे की तरह तरल हो जाएं। अहंकार को मार्ग से हटा दें और शरीर को तरल हो जाने दें। शरीर की ऊर्जा बहने लगेजमी न रह जाए। उत्तप्त हो जाएं। गहरी श्वास लेंताकि आक्सीजन जोर से चोट करे। जोर से हुंकार करेंताकि कुंडलिनी पर आघात पड़े। और भीतर उत्तप्त हो जाएं। अग्नि जग जाएअरणि टकरा जाए। और छिपी हुई अग्नि की लौ आपके भीतर जलने लगे।
इस लौ के जलते ही—जब तक आप रहेंगेथोड़ा धुआ रहेगाक्योंकि आप ईंधन हैं—जैसे ही आप खो जाएंगेधूम खो जाएगा। निर्धूम—ज्योति...। और निर्धूम—ज्योति का जिसे अनुभव हो जाता हैउसके लिए फिर कुछ और अनुभव करने को शेष नहीं रहता है।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।

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