बौद्ध भिक्षु और वेश्‍या– कथा यात्रा

एक बार एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से गुजर रहा था। चार कदम चलने के बाद वह ठिठका। क्‍योंकि भगवान ने भिक्षु संध को कह रखा था। दस कदम दूर से ज्‍यादा मत देखना। जितने से तुम्‍हारा काम चल जाये। अचानक उसे लगया ये गली कुछ अलग है। यहां की सजावट, रहन सहन। लोगों का यूं राह चलते उपर देखना। इशारे करना। कही कोई किसी को बुला रहा है। इशारा कर के। कोई किसी स्‍त्री को प्रश्न करने के लिए मिन्नत मशक्कत कर रहा है। जगह-जगह भीड़ इक्‍कठी है। ओर गांव और गलियों में ये दृश्य कम ही देखने को मिलते है। पर भिक्षु विचित्र सेन, थोड़ा चकित जरूर हुआ पर, निर्भय आगे बढ़ा, वह समझ गया की ये वेश्‍याओं का महोला है। यहां भिक्षा की उम्‍मीद कम ही है। वैसे तो भगवान ने कुछ वर्जित नहीं किया था कि किस घर जाओ किस घर न जाओ। पर जीवन में ऐसा उहाँ-पोह पहले आई नहीं थी। वह कुछ आगे बढ़ा। 
      ऊपर खिड़की से एक वेश्‍या ने भिक्षु विचित्र सेन को देखा और देखती रह गई। कितने ही लोगों का उसने देखा था। एक से एक सुंदर धनवान, बलवान, पर इस भिक्षु के मेले कुचैले कपड़े। हाथ में भिक्षा पात्र, पर इसकी चाल में कुछ ऐसा था मानों आनंद झर रहा हो। उसके चेहरे की आभा और शांति, अभूतपूर्व थी। राजे महाराजों की चाल भी उस युवक भिक्षु के सामने घसर-पसर लगती थी। मानों उसके कदम जमीन पर न पड़ हवा में बादलों पर पड़ रहे है। चलना-चलना न हो उसे पंख लग गये थे उसके पैरो में। बिना किसी सिंगार के वह राजा महाराजा को भी मात दे रहा था। अब ये विरोधाभास देखा आपने देखा ये आपने चमत्‍कार, हजारों लोगों ने उस भिक्षु को चलते हुए देखा। पर किसी और को उसकी चाल में कोई गुण गौरव क्‍यों नहीं नजर आ रहा था। ऐसा नहीं है हम जो देखते है वो सत्‍य है। देखने के लिए भी आंखें चाहिए, अन्‍दर भरा होश चाहिए। बुद्ध आते और हमी लोगों के बीच से होकर चले जाते है और हम नहीं देख पाते। देख पाते है उनके जाने के भी हजारों सालों बाद।
      वह वेश्‍या नीचे उतर आई और संन्‍यासी का रास्‍ता रोक कर खड़ी हो गई। संन्‍यासी अपूर्व रूप से सुंदर हो जाता है। संन्‍यास जैसा सौदर्य देता है, मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्‍यस्‍त होकर तुम सुंदर न हो जाओ, तो समझना की कही भूलचूक हो रही है। और संन्‍यासी का कोई शृंगार नहीं है। संन्‍यास इतना बड़ा शृंगार है कि फिर और शृंगार की कोई जरूरत नहीं होती। क्‍योंकि संन्‍यासी अपने में थिर हो जाता है। उसकी वासनाएं उसे घेरे नहीं होती। वह उस कोमल पुष्‍प की तरह हो जाता है। जो अभी-अभी प्रात: की बेला में खिला है। अभी उसकी पंखुड़ियों पर ओस की नाजुक बुंदे चमक रही है। उस पर कोई धुल धमास नहीं ज़मीं है। कोर नि:कुलीश है। उसकी सारी उद्विग्‍नता खो गयी है। उसके सारे ज्‍वर, तनाव, आसक्‍ति, कामनाए गिर गई है। शुन्‍य विराग का गीत गूंजता उसके अंतस से। उसके आस पास एक लयवदिता एक मधुर झंकार अभिभूत कर जाती है, उसके संग साथ मात्र से। आनंद का समुन्दर हिलोरे मारने लग रहा है उसके ह्रदय में। पर आपने देखा इस अनछुए निष्‍कलुष सौन्दर्य पर स्‍त्रीयां कितनी जल्‍दी मोहित हो जाती है। स्‍त्री में एक अद्भुत शक्‍ति है। वह आपकी आंखे, आपके शरीर के हाव भाव आपकी छूआन या देखने भर से आपके अंतस की गहराइयों तक की वासनाओं को जान जाती है एक पल में।
      उस वेश्‍या ने भिक्षु विचित्र गुप्‍त का रास्‍ता रोक लिया और आवेदन किया, है देव इस वर्षा काल तुम मेरे घर रूक जाओ। चार महीने वर्षा काल में बौद्ध भिक्षु किसी एक स्‍थान पर निवास करते थे। मैं सब तरह से तुम्‍हारी सेवा करूंगी। भिक्षु विचित्र गुप्‍त ने उस वेश्‍या की और देखा। उसकी आंखों में एक प्‍यास थी। कुछ खोज रही थी, जो उसे भोगविलास में, धन दौलत में नहीं मिल पा रहा था। उसने कहां है ‘’देवा मैं आज तुम्‍हें कुछ कह नहीं सकता। क्‍योंकि मुझे अपने गुरु से इस बात की इजाजत लेनी होगी। तुम कल तक मेरा इंतजार करों, मैं गुरु से पूछ का कल हाजिर होता हूं।‘’ और आगे बढ़ गया। जिस शांति और थिरता से उसके वो शब्‍द कहे थे। वे शब्‍द नहीं अमृत रस हो वह वेश्‍या उन शब्‍दों पर मंत्र मुग्‍ध हो गई। और जाते हुए उस बौद्ध भिक्षु को निहारती भर रही। उसे कोई शब्‍द न सुझा। मन पल के लिए निशब्द हो गया। एक गहरी शांति छा गई मन के आँगन में मानों जेष्ठ की भरी दोपहरी में अचानक एक काली घनी बदली ने सुर्य को ढक चारों और एक सीतलता बिखेर दी हो। उसके तड़पते मन पर पल भर के लिए शीतलता फेल गई। उस वेश्‍या को ये आस नहीं थी की मेरा ऐसा भाग्य होगा कि मैं जीवन में किसी भिक्षु का संग साथ करूंगी। उसे तो वासना के भूखी आंखे, गीध की तरह नोचते जवान मांस के भूखे पशुओं से ही पाला पड़ता रहता था। प्‍यार के दिखावे के नाम पर एक छलावा एक नकली चेहरा चारों और झूठ और फरेब की दीवारें ही देखने को मिली थी। उसका मन बार-बार कह रहा था की देखना, वह जरूर मेरा निमंत्रण स्‍वीकार लेगा। उसकी आंखों में भय नहीं था। और उसने उस भिक्षु की चरण धुल अपने आँचल में समेट ली और आपने निवास की और चली गयी।
      वो सब समान को सुनियोजित तरीके से लगाने लगी। दासी को भी कह दिया इस शयन कक्ष को खूब सुन्‍दर सज़ा सवार दे। कल कोई मेहमान आने वाला है। और वह यहां चार माह रहेगा। दासी उसका मुख देखती रह गई। ऐसा कोन मेहमान आ रहा है। यहां तो रोज नये आते है। और चले जाते है। दासी की समझ में कुछ आया कुछ नहीं आया। पर वह कुछ बोली नहीं अपने काम में लग गई। वेश्‍या तो इतनी प्रश्न हुई मानो उसके घर कल खुद भगवान चल कर आ रहे है। उसके पैर ज़मीं पर नहीं गिर रहे थे। इतनी खुशी उसे सहन नहीं हो पा रही थी। उसके होठो पर मधुर गान मुखरित हो रहे थे। उसके कदमों में रागों के नाद डोल रहे थे। ह्रदय हिलोरे ले रहा था। सांसों में सुगंध समा रही थी। इतनी खुशी उसे जीवन में पहले कभी नहीं हुई। लगता था आज जीवन धन्‍य हो गया।
      भिक्षु ने जाकर भगवान बुद्ध से भरी सभा में पूछा, दस हजार भिक्षु वहां पर मौजूद थे। भंते: मैं एक गांव में गया था, वह एक वेश्याओं का गांव था। एक युवती ने मेरा रास्‍ता रोक लिया। और आग्रह करने लगी की तुम इस वर्षा वाप पर चार माह मेरे यहां रुको। पास ही बैठे एक भिक्षु ने कहां भगवन वह स्‍त्री अति सुंदर थी और उपर से वेश्‍या भी। सारे भिक्षु में अचानक बिजली सी कौंध गई। कुछ भिक्षु उनमें से उत्‍तेजित भी हो रहे थे। कि भगवान अब क्‍या उत्‍तर देंगे? चारों और सन्नाटा छा गया। भिक्षु ने फिर कहां भगवान वह वेश्‍या है या नहीं इस सब से मुझे क्‍या परियोजना है। वह सुंदर है या कुरूप। ये महत्‍वपूर्ण नहीं है। महत्‍व पुर्ण बात तो ये है कि उसे ने मुझे राह पर रोक कर निमंत्रण दिया। आपकी आज्ञा लेने के लिए मैं आपके पास आया हूं। वैसे इतना भी उसकी श्रद्धा पर तुषार पात लग रहा है। ये मेरे ह्रदय पर एक बोझ है। जो मैं मीलों ढो कर आ रहा हूं। आपकी आज्ञा हो तो इस चार माह उस के निवास पर रहने का निमंत्रण स्‍वीकार करू या नहीं। जैसी आपकी आज्ञा।
       भगवान ने एक बार फिर विचित्र सेन की आंखों में झाँका और आज्ञा दे दी। चारों तरफ खुसर-फुसर होने लगी। आग लग गई। भिक्षु संध में। कुछ भिक्षुओं ने खड़े हो कर कहां भगवान ये अन्‍याय है। ये तो सरासर भ्रष्‍ट होने की राह है। आप खुद ही ऐसा करेंगे और कहेंगे तो हमे रोकेगा कौन,  समझायेंगा कौन। आप अपने निर्णय पर एक बार और सोच विचार कर ले। एक भिक्षु कहने लगा भगवान मेरे मन में भी ये प्रश्‍न था। में भी आपसे आज्ञा चाहता था। पर झिझक रहा था। कि लोग क्‍या कहेंगे। डर भी लग रहा था कि आप मना कर देंगे। अब तो मेरे प्रश्न का उत्तर आपने स्‍वयं ही दे दिया अब तो पूछने कि कोई जरूरत ही नहीं है। भगवान ने उस भिक्षु को देखा ये तुम्‍हारे लिए आज्ञा नहीं है। ये प्रश्‍न विचित्र सेन का था। तुम्‍हें शायद में ना कर देता। जब प्रश्‍न पूछने का और आज्ञा मांगने का साहस नहीं है तो फिर तुम्‍हारी क्‍या परिणति होगी ये तुम स्‍वंय ही जानते हो। और ये बात समझ लो मैं सोच विचार नहीं करता। मैं तो तुम्‍हारे अंतस में झांक कर देख भर लेता हूं, मुझे अपनी आज्ञा पर सोचने विचारने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब इस बात को यहीं खत्‍म करते है। और चार माह बाद जब विचित्र सेन आयेगा तभी कोई चर्चा होगी। इसे जाने दो इसे मैं जानता हूं, अगर वेश्‍या इसके संन्‍यास को डिगा देगी तो ये संन्‍यास थोथा होगा। इसका कोई मुल्‍य नहीं। तुम्हारे संन्‍यास की नाव में एक वेश्‍या भी यात्रा न कर सके तो दो पैसे का संन्‍यास है। उसका क्‍या मूल्‍य है?
      भिक्षु विचित्र सेन भगवान को प्रणाम कर चला गया। सार भिक्षु संध उसे जाते को देखता रहे। कईयों के मन में तरह-तरह लड्डू फूट रहे थे। क्‍या भाग्‍य पाय है। अब यह करेगा चार माह तक मौज, और अपनी किस्‍मत को कोसने लगे। उधर वेश्‍या ने उसका स्‍वगत किया, शायद उसे उम्‍मीद थी की भिक्षु आयेगा। चार माह तक उसकी खूब सेवा की,अपने हाथ से खिलाया। तेल मालिश करती। नहलाती। नरम मुलायम बिस्तरे  सोने के लिए देती। कभी नाज गा कर भी उसका मनोरंजन करती। कभी खुद उसकी गोद में लेट जाती। जिन भिक्षुओं को ईषा थी, वह झांक-झांक कर देखते। और भगवान को आकर शिकायत करते की देखा आपने, विचित्र सेन को, वह नाच गाने सुनता है। सुस्‍वाद भोजन करता है, कभी वो वेश्‍या उसकी गोद में लेटी हमने देखी। वह अपने हाथों से उसे तेल लगती है,नहलाती है। और कभी-कभी तो हमने उन्‍हें एक ही बिस्तरे पर संग साथ सोते भी देखा है। भगवान आप ने भी कमाल कर दिया। उस बेचारे का सारा जीवन बर्बाद हो गया। सारी तपस्‍या मिट्टी में मिल गई। भगवान केवल हंस भर देते।
      चार माह बाद वह भिक्षु विचित्र सेन आया। वेश्‍या भी उसके साथ चली आ रही थी। उसने भगवान के चरणों में सर रख कर कहां आपके भिक्षु को क्‍या मिल गया। मैं नहीं जानती बस मैने चार माह उसका संग किया है। आपका भिक्षु हर क्रियाकलाप से सतत अप्रभावित रहा। किसी भी चीज का उसने कभी विरोध नहीं किया। जो खाने को देती खा लेता। जो मैं कर सकती थी एक पुरूष को रिझाने के लिए वो सब उपाऐं मैंने किये। नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर वह सदा अप्रभावित रहा। मैं हार गई भगवान ऐसा पुरूष मैंने जीवन में नहीं देखा। हजारों पुरूषों का संग किया है। पुरूष की हर गति विधि से में परिचित हूं। पर आपके भिक्षु ने जरूर कुछ ऐसा रस जाना है। जो इस भोग के रस से कहीं उत्‍तम है। मुझ अभागी को भी मार्ग दो। मैं भी वहीं रस चाहती हूं। जो क्षण में न छिन जाये शाश्वत रहे। में भी पूर्ण होना चाहती हू। सच ही आपका भिक्षु पूर्ण पुरूष है। और उसने दीक्षा ले ली। विचित्र सेन ने भगवान के चरणों में अपना सर रखा। भगवान ने उसे उठा कर अपने गले से लगया। मेरा बेटा विचित्र सेन सच में ही विचित्र हो गया। अर्हत हो गया है। और वेश्‍या के साथ पूरे भिक्षु संध की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।
      भगवान न उस भिक्षु को देख कर कहा, देखा भिक्षु तुमने, मेरा बेटा वेश्‍या के यहां चार मास रहा तो एक और भिक्षु को अपने साथ लाया। तू भी सिख अपने अंदर झांक कर देख,उस मन की चालबाजी को जो तुझे छल रहा है। वह जो कह रहा है..क्‍या वह सत्‍य है या मात्र एक छलावा। आंखें खोल जाग, देख चारों और कितना प्रकाश फैल रहा है। और ये अपने ही दिल पर हाथ रख कर खुद ही उत्‍तर ढुंड़ कि क्‍या तु अगर जाता तो तेरी दबी वासना तुझे डुबो नहीं देती क्‍या तू  वापिस आता......शायद कभी नहीं, हां इस संध में एक भिक्षु और कम हो जाता संध में। और सब भिक्षु पल भर के लिए खिल खिला कर हंस दिये।
--स्‍वामी आनंद प्रसाद
धम पद

1 comment:

  1. जय मां हाटेशवरी....
    आप ने लिखा...
    कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
    हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
    दिनांक 26/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की जा रही है...
    इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
    टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    कुलदीप ठाकुर...

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